मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-18

पेज-179

सहसा उसे एक लंबा पाइप घास में छिपा नजर आया, जिसमें से पानी बह रहा था। उसने जा कर पाँव धोए, चप्पल धोए, हाथ-मुँह धोया, थोड़ा-सा पानी चुल्लू में ले कर पिया और पाइप के उस पार सूखी जमीन पर जा बैठी। उदासी में मौत की याद तुरंत आती है। कहीं वह यहीं बैठे-बैठे मर जाय, तो क्या हो? ताँगे वाला तुरंत जा कर खन्ना को खबर देगा। खन्ना सुनते ही खिल उठेंगे, लेकिन दुनिया को दिखाने के लिए आँखों पर रूमाल रख लेंगे। बच्चों के लिए खिलौने और तमाशे माँ से प्यारे हैं। यह है उसका जीवन, जिसके लिए कोई चार बूँद आँसू बहाने वाला भी नहीं। तब उसे वह दिन याद आया, जब उसकी सास जीती थी और खन्ना उड़ंकू न हुए थे। तब उसे सास का बात-बात पर बिगड़ना बुरा लगता था, आज उसे सास के उस क्रोध में स्नेह का रस घुला हुआ जान पड़ रहा था। तब वह सास से रूठ जाती थी और सास उसे दुलार कर मनाती थी। आज वह महीनों रूठी पड़ी रहे, किसे परवा है? एकाएक उसका मन उड़ कर माता के चरणों में जा पहुँचा। हाय! आज अम्माँ होती, तो क्यों उसकी यह दुर्दशा होती! उसके पास और कुछ न था, स्नेह-भरी गोद तो थी, प्रेम-भरा अंचल तो था, जिसमें मुँह डाल कर वह रो लेती। लेकिन नहीं, वह रोएगी नहीं, उस देवी को स्वर्ग में दु:खी न बनाएगी। मेरे लिए वह जो कुछ ज्यादा से ज्यादा कर सकती थी, वह कर गई! मेरे कमोऊ की साथिन होना तो उनके वश की बात न थी। और वह क्यों रोए? वह अब किसी के अधीन नहीं है। वह अपने गुजर-भर को कमा सकती है। वह कल ही गांधी-आश्रम से चीजें ले कर बेचना शुरू कर देगी। शर्म किस बात की? यही तो होगा, लोग उँगली दिखा कर कहेंगे - वह जा रही है खन्ना की बीबी। लेकिन इस शहर में रहूँ ही क्यों? किसी दूसरे शहर में क्यों न चली जाऊँ, जहाँ मुझे कोई जानता ही न हो। दस-बीस रुपए कमा लेना ऐसा क्या मुश्किल है। अपने पसीने की कमाई तो खाऊँगी, फिर तो कोई मुझ पर रोब न जमाएगा। यह महाशय इसीलिए तो इतना मिजाज करते हैं कि वह मेरा पालन करते हैं। मैं अब खुद अपना पालन करूँगी।

सहसा उसने मेहता को अपनी तरफ आते देखा। उसे उलझन हुई। इस वक्त वह संपूर्ण एकांत चाहती थी। किसी से बोलने की इच्छा न थी, मगर यहाँ भी एक महाशय आ ही गए। उस पर बच्चा रोने लगा।

मेहता ने समीप आ कर विस्मय से पूछा - आप इस वक्त यहाँ कैसे आ गईं?

गोविंदी ने बालक को चुप कराते हुए कहा - उसी तरह जैसे आप आ गए?

मेहता ने मुस्करा कर कहा - मेरी बात न चलाइए। धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का। लाइए, मैं बच्चे को चुप करा दूँ।

'आपने यह कला कब सीखी?'

'अभ्यास करना चाहता हूँ। इसकी परीक्षा जो होगी।'

'अच्छा! परीक्षा के दिन करीब आ गए?'

 

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