'तो हमारे रुपए सूद समेत दे दो। तीन साल का सूद होता है सौ रूपया। असल मिला कर दो सौ होते हैं। हमने समझा था, तीन रुपए महीने सूद में कटते जाएँगे, लेकिन तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो मत करो। मेरे रुपए दे दो। धन्ना सेठ बनते हो, तो धन्ना सेठ का काम करो। होरी ने दातादीन से कहा - तुम्हारी चाकरी से मैं कब इनकार करता हूँ महाराज? लेकिन हमारी ऊख भी तो बोने को पड़ी है। गोबर ने बाप को डाँटा - कैसी चाकरी और किसकी चाकरी? यहाँ कोई किसी का चाकर नहीं। सभी बराबर हैं। अच्छी दिल्लगी है। किसी को सौ रुपए उधार दे दिए और उससे सूद में जिंदगी भर काम लेते रहे। मूल ज्यों का त्यों! यह महाजनी नहीं है, खून चूसना है। 'तो रुपए दे दो भैया, लड़ाई काहे की, मैं आने रुपए ब्याज लेता हूँ, तुम्हें गाँव-घर का समझ कर आधा आने रुपए पर दिया था।' 'हम तो एक रूपया सैकड़ा देंगे। एक कौड़ी बेसी नहीं। तुम्हें लेना हो तो लो, नहीं अदालत से ले लेना। एक रूपया सैकड़े ब्याज कम नहीं होता।' 'मालूम होता है, रुपए की गरमी हो गई है।' 'गरमी उन्हें होती है, जो एक के दस लेते हैं। हम तो मजूर हैं। हमारी गरमी पसीने के रास्ते बह जाती है। मुझे खूब याद है, तुमने बैल के लिए तीस रुपए दिए थे। उसके सौ हुए और अब सौ के दो सौ हो गए। इसी तरह तुम लोगों ने किसानों को लूट-लूट कर मजूर बना डाला और आप उनकी जमीन के मालिक बन बैठे। तीस के दो सौ! कुछ हद है! कितने दिन हुए होंगे दादा?'
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