होरी ने कातर कंठ से कहा - यही आठ-नौ साल हुए होंगे। गोबर ने छाती पर हाथ रख कर कहा - नौ साल में तीस के दो सौ। एक रुपए के हिसाब से कितना होता है? उसने जमीन पर एक ठीकरे से हिसाब लगाते हुए कहा - दस साल में छत्तीस रुपए होते हैं। असल मिला कर छाछठ। उसके सत्तर रुपए ले लो। इससे बेसी मैं एक कौड़ी न दूँगा। दातादीन ने होरी को बीच में डाल कर कहा - सुनते हो होरी, गोबर का फैसला? मैं अपने दो सौ छोड़ के सत्तर ले लूँ , नहीं अदालत करूँ। इस तरह का व्यवहार हुआ तो कै दिन संसार चलेगा? और तुम बैठे सुन रहे हो, मगर यह समझ लो, मैं ब्राह्मण हूँ, मेरे रुपए हजम करके तुम चैन न पाओगे। मैंने ये सत्तर रुपए भी छोड़े, अदालत भी न जाऊँगा, जाओ। अगर मैं ब्राह्मण हूँ, तो पूरे दो सौ रुपए ले कर दिखा दूँगा, और तुम मेरे द्वार पर आवोगे और हाथ बाँध कर दोगे। दातादीन झल्लाए हुए लौट पड़े। गोबर अपनी जगह बैठा रहा। मगर होरी के पेट में धर्म की क्रांति मची हुई थी। अगर ठाकुर या बनिए के रुपए होते, तो उसे ज्यादा चिंता न होती, लेकिन ब्राह्मण के रुपए! उसकी एक पाई भी दब गई, तो हड्डी तोड़ कर निकलेगी। भगवान न करें कि ब्राह्मण का कोप किसी पर गिरे। बंस में कोई चुल्लू-भर पानी देने वाला, घर में दिया जलाने वाला भी नहीं रहता। उसका धर्म-भीरु मन त्रस्त हो उठा। उसने दौड़ कर पंडित जी के चरण पकड़ लिए और आर्त स्वर में बोला - महराज, जब तक मैं जीता हूँ, तुम्हारी एक-एक पाई चुकाऊँगा। लड़के की बातों पर मत जाओ। मामला तो हमारे-तुम्हारे बीच में हुआ है। वह कौन होता है? दातादीन जरा नरम पड़े - जरा इसकी जबर्दस्ती देखो, कहता है, दो सौ रुपए के सत्तर लो या अदालत जाओ। अभी अदालत की हवा नहीं खाई है, जभी। एक बार किसी के पाले पड़ जाएँगे, तो फिर यह ताव न रहेगा। चार दिन सहर में क्या रहे, तानासाह हो गए!
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