'मैं तो कहता हूँ महाराज, मैं तुम्हारी एक-एक पाई चुकाऊँगा।' 'तो कल से हमारे यहाँ काम करने आना पड़ेगा।' 'अपनी ऊख बोना है महाराज, नहीं तुम्हारा ही काम करता।' दातादीन चले गए तो गोबर ने तिरस्कार की आँखों से देख कर कहा - गए थे देवता को मनाने। तुम्हीं लोगों ने तो इन सबों का मिजाज बिगाड़ दिया है। तीस रुपए दिए, अब दो सौ रुपए लेगा, और डाँट ऊपर से बताएगा और तुमसे मजूरी कराएगा और काम कराते-कराते मार डालेगा। होरी ने अपने विचार में सत्य का पक्ष ले कर कहा - नीति हाथ से न छोड़ना चाहिए बेटा, अपनी-अपनी करनी अपने साथ है। हमने जिस ब्याज पर रुपए लिए, वह तो देने ही पड़ेंगे। फिर ब्राह्मण ठहरे। इनका पैसा हमें पचेगा? ऐसा माल तो इन्हीं लोगों को पचता है। गोबर ने त्योरियाँ चढ़ाईं - नीति छोड़ने को कौन कह रहा है? और कौन कह रहा है कि ब्राह्मण का पैसा दबा लो? मैं तो यह कहता हूँ कि इतना सूद नहीं देंगे। बैंक वाले बारह आने सूद लेते हैं। तुम एक रूपया ले लो। और क्या किसी को लूट लोगे? 'उनका रोयाँ जो दु:खी होगा?' 'हुआ करे। उनके दु:खी होने के डर से हम बिल क्यों खोदें?' 'बेटा, जब तक मैं जीता हूँ, मुझे अपने रस्ते चलने दो। जब मैं मर जाऊँ, तो तुम्हारी जो इच्छा हो, वह करना।' 'तो फिर तुम्हीं देना। मैं तो अपने हाथों अपने पाँव में कुल्हाड़ी न मारूँगा। मेरा गधापन था कि तुम्हारे बीच में बोला - तुमने खाया है, तुम भरो। मैं क्यों अपनी जान दूँ?' यह कहता हुआ गोबर भीतर चला गया। झुनिया ने पूछा - आज सबेर-सबेरे दादा से क्यों उलझ पड़े?
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