रायसाहब ने आहत नेत्रों से देखा - आप मुझे इतना बेईमान समझते हैं? तंखा ने कुरसी से उठते हुए कहा - इसे बेईमानी कौन समझता है! आजकल यही चतुराई है। कैसे दूसरों को उल्लू बनाया जा सके, यही सफल नीति है, और आप इसके आचार्य हैं। रायसाहब ने मुट्ठी बाँध कर कहा - मैं? 'जी हाँ, आप! पहले चुनाव में मैंने जी-जान से आपकी पैरवी की। आपने बड़ी मुश्किल से रो-धो कर पाँच सौ रुपए दिए, दूसरे चुनाव में आपने एक सड़ी-सी टूटी-फूटी कार दे कर अपना गला छुड़ाया। दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है।' वह कमरे से निकल गए और कार लाने का हुक्म दिया। रायसाहब का खून खौल रहा था। इस अशिष्टता की भी कोई हद है! एक तो घंटे-भर इंतजार कराया और अब इतनी बेमुरौवती से पेश आ कर उन्हें जबरदस्ती घर से निकाल रहा है। अगर उन्हें विश्वास होता कि वह मिस्टर तंखा को पटकनी दे सकते हैं, तो कभी न चूकते, मगर तंखा डील-डौल में उनसे सवाए थे। जब मिस्टर तंखा ने हार्न बजाया, तो वह भी आ कर अपनी कार पर बैठे और सीधे मिस्टर खन्ना के पास पहुँचे। नौ बज रहे थे, मगर खन्ना साहब अभी मीठी नींद का आनंद ले रहे थे। वह दो बजे रात के पहले कभी न सोते थे और नौ बजे तक सोना स्वाभाविक ही था। यहाँ भी रायसाहब को आधा घंटा बैठना पड़ा, इसीलिए जब कोई साढ़े नौ बजे मिस्टर खन्ना मुस्कराते हुए निकले तो रायसाहब ने डाँट बताई-अच्छा! अब सरकार की नींद खुली है तो साढ़े नौ बजे। रुपए जमा कर लिए हैं न, जभी बेफिक्री है। मेरी तरह ताल्लुकेदार होते, तो अब तक आप भी किसी द्वार पर खड़े होते। बैठे-बैठे सिर में चक्कर आ जाता। मिस्टर खन्ना ने सिगरेट-केस उनकी तरफ बढ़ाते हुए प्रसन्न मुख से कहा - रात सोने में बड़ी देर हो गई। इस वक्त किधर से आ रहे हैं। रायसाहब ने थोड़े शब्दों में अपनी सारी कठिनाइयाँ बयान कर दीं। दिल में खन्ना को गालियाँ देते थे, जो उनका सहपाठी हो कर भी सदैव उन्हें ठगने की फिक्र किया करता था, मगर मुँह पर उसकी खुशामद करते थे।
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