खन्ना एक-एक शब्द पर मानो गज-गज भर नीचे धँसते जाते थे। अब और ज्यादा चोट सहने का उनमें जीवट न था। लज्जित हो कर बोले - मालती, तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ, अब और जलील न करो। और न सही तो मित्र-भाव तो बना रहने दो। यह कहते हुए उन्होंने दराज से चेकबुक निकाली और एक हजार लिख कर डरते-डरते मालती की तरफ बढ़ाया। मालती ने चैक ले कर निर्दय व्यंग किया - यह मेरे व्यवहार का मूल्य है या व्यायामशाला का चंदा? खन्ना सजल आँखों से बोले - अब मेरी जान बख्शो मालती, क्यों मेरे मुँह में कालिख पोत रही हो। मालती ने जोर से कहकहा मारा - देखो, डाँट बताई और एक हजार रुपए भी वसूल किए। अब तो तुम कभी ऐसी शरारत न करोगे? 'कभी नहीं, जीते जी कभी नहीं।' 'कान पकड़ो।' 'कान पकड़ता हूँ, मगर अब तुम दया करके जाओ और मुझे एकांत में बैठ कर सोचने और रोने दो। तुमने आज मेरे जीवन का सारा आनंद……..।' मालती और जोर से हँसी - देखो, तुम मेरा बहुत अपमान कर रहे हो और तुम जानते हो, रूप अपमान नहीं सह सकता। मैंने तो तुम्हारे साथ भलाई की और तुम उसे बुराई समझ रहे हो। खन्ना विद्रोह-भरी आँखों से देख कर बोले - तुमने मेरे साथ भलाई की है या उलटी छुरी से मेरा गला रेता है? 'क्यों, मैं तुम्हें लूट-लूट कर अपना घर भर रही थी। तुम उस लूट से बच गए।' 'क्यों घाव पर नमक छिड़क रही हो मालती! मैं भी आदमी हूँ।' मालती ने इस तरह खन्ना की ओर देखा, मानो निश्चय करना चाहती थी कि वह आदमी है या नहीं? 'अभी तो मुझे इसका कोई लक्षण नहीं दिखाई देता।' 'तुम बिलकुल पहेली हो, आज यह साबित हो गया।' 'हाँ, तुम्हारे लिए पहेली हूँ और पहेली रहूँगी।' यह कहती हुई वह पक्षी की भाँति फुर्र से उड़ गई और खन्ना सिर पर हाथ रख कर सोचने लगे, यह लीला है या इसका सच्चा रूप।
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