दातादीन के अभिमान को चोट लगी। दाढ़ी पर हाथ फेर कर बोले - पास कुछ न सही, मैं भीख ही माँगता हूँ, लेकिन मैंने अपने लड़कियों के ब्याह में पाँच-पाँच सौ दिए हैं, फिर लड़के के लिए पाँच सौ क्यों न माँगूँ? किसी ने सेंत-मेंत में मेरी लड़की ब्याह ली होती, तो मैं भी सेंत में लड़का ब्याह लेता। रही हैसियत की बात। तुम जजमानी को भीख समझो, मैं तो उसे जमींदारी समझता हूँ, बंकघर। जमींदार मिट जाय, बंकघर टूट जाय, लेकिन जजमानी अंत तक बनी रहेगी। जब तक हिंदू-जाति रहेगी तब तक बाम्हन भी रहेंगे और जजमानी भी रहेगी। सहालग में मजे से घर बैठे सौ-दो-सौ फटकार लेते हैं। कभी भाग लड़ गया, तो चार-पाँच सौ मार लिया। कपड़े, बरतन, भोजन अलग। कहीं-न-कहीं नित ही कार-परोजन पड़ा ही रहता है। कुछ न मिले तब भी एक-दो थाल और दो-चार आने दक्षिणा के मिल ही जाते हैं। ऐसा चैन न जमींदारी में है, न साहूकारी में। और फिर मेरा तो सिलिया से जितना उबार होता है, उतना ब्राह्मण की कन्या से क्या होगा? वह तो बहुरिया बनी बैठी रहेगी। बहुत होगा, रोटियाँ पका देगी। यहाँ सिलिया अकेली तीन आदमियों का काम करती है। और मैं उसे रोटी के सिवा और क्या देता हूँ? बहुत हुआ, तो साल में एक धोती दे दी। दूसरे पेड़ के नीचे दातादीन का निजी पैरा था। चार बैलों से मँड़ाई हो रही थी। धन्ना चमार बैलों को हाँक रहा था, सिलिया पैरे से अनाज निकाल-निकाल कर ओसा रही थी और मातादीन दूसरी ओर बैठा अपनी लाठी में तेल मल रहा था। सिलिया साँवली सलोनी, छरहरी बालिका थी, जो रूपवती न हो कर भी आकर्षक थी। उसके हास में, चितवन में, अंगों के विलास में हर्ष का उन्माद था, जिससे उसकी बोटी-बोटी नाचती रहती थी, सिर से पाँव तक भूसे के अणुओं में सनी, पसीने से तर, सिर के बाल आधे खुले, वह दौड़-दौड़ कर अनाज ओसा रही थी, मानो तन-मन से कोई खेल खेल रही हो। मातादीन ने कहा - आज साँझ तक अनाज बाकी न रहे सिलिया! तू थक गई हो तो मैं आऊँ? सिलिया प्रसन्न मुख बोली - तुम काहे को आओगे पंडित! मैं संझा तक सब ओसा दूँगी। 'अच्छा, तो मैं अनाज ढो-ढो कर रख आऊँ। तू अकेली क्या-क्या कर लेगी?' 'तुम घबड़ाते क्यों हो, मैं ओसा दूँगी, ढो कर रख भी आऊँगी। पहर रात तक यहाँ दाना भी न रहेगा।' दुलारी सहुआइन आज अपना लेहना वसूल करती फिरती थी। सिलिया उसकी दुकान से होली के दिन दो पैसे का गुलाबी रंग लाई थी। अभी तक पैसे न दिए थे। सिलिया के पास आ कर बोली - क्यों री सिलिया, महीना भर रंग लाए हो गया, अभी तक पैसे नहीं दिए? माँगती हूँ तो मटक कर चली जाती है। आज मैं बिना पैसे लिए न जाऊँगी। मातादीन चुपके-से सरक गया था। सिलिया का तन और मन दोनों ले कर भी बदले में कुछ न देना चाहता था। सिलिया अब उसकी निगाह में केवल काम करने की मशीन थी, और कुछ नहीं। उसकी ममता को वह बड़े कौशल से नचाता रहता था। सिलिया ने आँख उठा कर देखा तो मातादीन वहाँ न था। बोली - चिल्लाओ मत सहुआइन, यह ले लो, दो की जगह चार पैसे का अनाज। अब क्या जान लेगी? मैं मरी थोड़े ही जाती थी।
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