उसने अंदाज से कोई सेर-भर अनाज ढेर में से निकाल कर सहुआइन के फैले हुए अंचल में डाल दिया। उसी वक्त मातादीन पेड़ की आड़ से झल्लाया हुआ निकला और सहुआइन का अंचल पकड़ कर बोला - अनाज सीधे से रख दो सहुआइन, लूट नहीं है। फिर उसने लाल आँखों से सिलिया को देख कर डाँटा - तूने अनाज क्यों दे दिया? किससे पूछ कर दिया? तू कौन होती है मेरा अनाज देने वाली? सहुआइन ने अनाज ढेर में डाल दिया और सिलिया हक्का-बक्का हो कर मातादीन का मुँह देखने लगी। ऐसा जान पड़ा, जिस डाल पर वह निश्चिंत बैठी हुई थी, वह टूट गई और अब वह निराधार नीचे गिरी जा रही है। खिसियाए हुए मुँह से, आँखों में आँसू भर कर सहुआइन से बोली - तुम्हारे पैसे मैं फिर दे दूँगी सहुआइन! आज मुझ पर दया करो। सहुआइन ने उसे दयार्द्र नेत्रों से देखा और मातादीन को धिक्कार-भरी आँखों से देखती हुई चली गई। तब सिलिया ने अनाज ओसाते हुए आहत गर्व से पूछा - तुम्हारी चीज में मेरा कुछ अख्तियार नहीं है? मातादीन आँखें निकाल कर बोला - नहीं, तुझे कोई अख्तियार नहीं है। काम करती है, खाती है। जो तू चाहे कि खा भी, लुटा भी, तो यह यहाँ न होगा। अगर तुझे यहाँ न परता पड़ता हो, तो कहीं और जा कर काम कर, मजूरों की कमी नहीं है। सेंत में काम नहीं लेते, खाना-कपड़ा देते हैं। सिलिया ने उस पक्षी की भाँति, जिसे मालिक ने पर काट कर पिंजरे से निकाल दिया हो, मातादीन की ओर देखा। उस चितवन में वेदना अधिक थी या भर्त्सना, यह कहना कठिन है। पर उसी पक्षी की भाँति उसका मन फड़फड़ा रहा था और ऊँची डाल पर उन्मुक्त वायुमंडल में उड़ने की शक्ति न पा कर उसी पिंजरे में जा बैठना चाहता था, चाहे उसे बेदाना, बेपानी, पिंजरे की तीलियों से सिर टकरा कर मर ही क्यों न जाना पड़े। सिलिया सोच रही थी, अब उसके लिए दूसरा कौन-सा ठौर है। वह ब्याहता न हो कर भी संस्कार में और व्यवहार में और मनोभावना में ब्याहता थी, और अब मातादीन चाहे उसे मारे या काटे, उसे दूसरा आश्रय नहीं है, दूसरा अवलंब नहीं है। उसे वह दिन याद आए - और अभी दो साल भी तो नहीं हुए? जब यही मातादीन उसके तलवे सहलाता था, जब उसने जनेऊ हाथ में ले कर कहा था - सिलिया, जब तक दम में दम है, तुझे ब्याहता की तरह रखूँगा, जब वह प्रेमातुर हो कर हार में और बाग में और नदी के तट, पर उसके पीछे-पीछे पागलों की भाँति फिरा करता था। और आज उसका यह निष्ठुर व्यवहार! मुट्ठी-भर अनाज के लिए उसका पानी उतार लिया।
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