उसने कोई जवाब न दिया। कंठ में नमक के एक डले का-सा अनुभव करती हुई आहत हृदय और शिथिल हाथों से फिर काम करने लगी। उसी वक्त उसकी माँ, बाप, दोनों भाई और कई अन्य चमारों ने न जाने किधर से आ कर मातादीन को घेर लिया। सिलिया की माँ ने आते ही उसके हाथ से अनाज की टोकरी छीन कर फेंक दी और गाली दे कर बोली - राँड़, जब तुझे मजूरी ही करनी थी, तो घर की मजूरी छोड़ कर यहाँ क्या करने आई। जब बाँभन के साथ रहती है, तो बाँभन की तरह रह। सारी बिरादरी की नाक कटवा कर भी चमारिन ही बनना था, तो यहाँ क्या घी का लोंदा लेने आई थी। चुल्लू-भर पानी में डूब नहीं मरती। झिुंगरीसिंह और दातादीन दोनों दौड़े और चमारों के बदले तेवर देख कर उन्हें शांत करने की चेष्टा करने लगे। झिंगुरीसिंह ने सिलिया के बाप से पूछा - क्या बात है चौधरी, किस बात का झगड़ा है? सिलिया का बाप हरखू साठ साल का बूढ़ा था, काला, दुबला, सूखी मिर्च की तरह पिचका हुआ, पर उतना ही तीक्ष्ण। बोला - झगड़ा कुछ नहीं है ठाकुर, हम आज या तो मातादीन को चमार बनाके छोड़ेंगे, या उनका और अपना रकत एक कर देंगे। सिलिया कन्या जात है, किसी-न-किसी के घर तो जायगी ही। इस पर हमें कुछ नहीं कहना है, मगर उसे जो कोई भी रखे, हमारा हो कर रहे। तुम हमें बाँभन नहीं बना सकते, मुदा हम तुम्हें चमार बना सकते हैं। हमें बाँभन बना दो, हमारी सारी बिरादरी बनने को तैयार है। जब यह समरथ नहीं है, तो फिर तुम भी चमार बनो। हमारे साथ खाओ, पिओ, हमारे साथ उठो-बैठो। हमारी इज्जत लेते हो, तो अपना धरम हमें दो। दातादीन ने लाठी फटकार कर कहा - मुँह सँभाल कर बातें कर हरखुआ! तेरी बिटिया वह खड़ी है, ले जा जहाँ चाहे। हमने उसे बाँध नहीं रक्खा है। काम करती थी, मजूरी लेती थी। यहाँ मजूरों की कमी नहीं है। सिलिया की माँ उँगली चमका कर बोली - वाह-वाह पंडित! खूब नियाव करते हो। तुम्हारी लड़की किसी चमार के साथ निकल गई होती और तुम इसी तरह की बातें करते, तो देखती। हम चमार हैं, इसलिए हमारी कोई इज्जत ही नहीं। हम सिलिया को अकेले न ले जाएँगे, उसके साथ मातादीन को भी ले जाएँगे, जिसने उसकी इज्जत बिगाड़ी है। तुम बड़े नेमी-धरमी हो। उसके साथ सोओगे, लेकिन उसके हाथ का पानी न पियोगे! वही चुड़ैल है कि यह सब सहती है। मैं तो ऐसे आदमी को माहुर दे देती। हरखू ने अपने साथियों को ललकारा - सुन ली इन लोगों की बात कि नहीं! अब क्या खड़े मुँह ताकते हो।
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