'इसमें अक्कल की कौन बात है चुड़ैल! क्या मेरे आँखें नहीं हैं कि मैं पागल हूँ? दो सौ मेरे ब्याह में लें। तीन-चार साल में वह दूना हो जाए। तब रुपिया के ब्याह में दो सौ और लें। जो कुछ खेती-बारी है, सब लिलाम-तिलाम हो जाय, और द्वार-द्वार पर भीख माँगते फिरें। यही न? इससे तो कहीं अच्छा है कि मैं अपने जान दे दूँ। मुँह अँधेरे सोनारी चली जाना और उसे बुला लाना। मगर नहीं, बुलाने का काम नहीं। मुझे उससे बोलते लाज आएगी! तू ही मेरा यह संदेसा कह देना। देख क्या जवाब देते हैं। कौन दूर है? नदी के उस पार ही तो है। कभी-कभी ढोर ले कर इधर आ जाता है। एक बार उसकी भैंस मेरे खेत में पड़ गई थी, तो मैंने उसे बहुत गालियाँ दी थीं, हाथ जोड़ने लगा। हाँ, यह तो बता, इधर मतई से तेरी भेंट नहीं हुई? सुना, बाँभन लोग उन्हें बिरादरी में नहीं ले रहे हैं। सिलिया ने हिकारत के साथ कहा - बिरादरी में क्यों न लेंगे, हाँ, बूढ़ा रुपए नहीं खरच करना चाहता। इसको पैसा मिल जाय, तो झूठी गंगा उठा ले। लड़का आजकल बाहर ओसारे में टिक्कड़ लगाता है। 'तू उसे छोड़ क्यों नहीं देती? अपनी बिरादरी में किसी के साथ बैठ जा और आराम से रह। वह तेरा अपमान तो न करेगा।' 'हाँ रे, क्यों नहीं, मेरे पीछे उस बेचारे की इतनी दुरदसा हुई, अब मैं उसे छोड़ दूँ? अब वह चाहे पंडित बन जाय, चाहे देवता बन जाय, मेरे लिए तो वही मतई है, जो मेरे पैरों पर सिर रगड़ा करता था, और बाँभन भी हो जाय और बाँभनी से ब्याह भी कर ले, फिर भी जितनी उसकी सेवा मैंने की है, वह कोई बाँभनी क्या करेगी! अभी मान-मरजाद के मोह में वह चाहे मुझे छोड़ दे, लेकिन देख लेना, फिर दौड़ा आएगा।' 'आ चुका अब। तुझे पा जाय तो कच्चा ही खा जाए।' 'तो उसे बुलाने ही कौन जाता है? अपना-अपना धरम अपने-अपने साथ है। वह अपना धरम तोड़ रहा है, तो मैं अपना धरम क्यों तोडूँ?' प्रात:काल सिलिया सोनारी की ओर चली, लेकिन होरी ने रोक लिया। धनिया के सिर में दर्द था। उसकी जगह क्यारियों को बराना था। सिलिया इनकार न कर सकी। यहाँ से जब दोपहर को छुट्टी मिली तो वह सोनारी चली।
|