होरी ने दीनता से कहा - पूछने के लिए तूने मुँह भी रखा हो। तेरी गालियाँ क्या उन्होंने न सुनी होंगी? 'जो गाली खाने का काम करेगा, उसे गालियाँ मिलेंगी ही।' 'तू गालियाँ भी देगी और भाई-चारा भी निभाएगी।' 'देखूँगी, मेरे खेत के नगीच कौन जाता है?' 'मिल वाले आ कर काट ले जाएँगे, तू क्या करेगी, और मैं क्या करूँगा? गालियाँ दे कर अपने जीभ की खुजली चाहे मिटा ले।' 'मेरे जीते-जी कोई मेरा खेत काट ले जायगा?' 'हाँ, तेरे और मेरे जीते-जी। सारा गाँव मिल कर भी उसे नहीं रोक सकता। अब वह चीज मेरी नहीं, मँगरू साह की है।' 'मँगरू साह ने मर-मर कर जेठ की दुपहरी में सिंचाई और गोड़ाई की थी?' 'वह सब तूने किया, मगर अब वह चीज, मँगरू साह की है। हम उनके करजदार नहीं हैं?' ऊख तो गई, लेकिन उसके साथ ही एक नई समस्या आ पड़ी। दुलारी इसी ऊख पर रुपए देने को तैयार हुई थी। अब वह किस जमानत पर रुपए दे? अभी उसके पहले ही के दो सौ रुपए पड़े हुए थे। सोचा था, ऊख से पुराने रुपए मिल जाएँगे, तो नया हिसाब चलने लगेगा। उसकी नजर में होरी की साख दो सौ तक थी। इससे ज्यादा देना जोखिम था। सहालग सिर पर था। तिथि निश्चित हो चुकी थी। गौरी महतो ने सारी तैयारियाँ कर ली होंगी। अब विवाह का टलना असंभव था। होरी को ऐसा क्रोध आता था कि जा कर दुलारी का गला दबा दे। जितनी चिरौरी-बिनती हो सकती थी, वह कर चुका, मगर वह पत्थर की देवी जरा भी न पसीजी। उसने चलते-चलते हाथ बाँध कर कहा - दुलारी, मैं तुम्हारे रुपए ले कर भाग न जाऊँगा। न इतनी जल्द मरा ही जाता हूँ। खेत हैं, पेड़-पालो हैं, घर है, जवान बेटा है। तुम्हारे रुपए मारे न जाएँगे, मेरी इज्जत जा रही है, इसे सँभालो। मगर दुलारी ने दया को व्यापार में मिलाना स्वीकार न किया। अगर व्यापार को वह दया का रूप दे सकती, तो उसे कोई आपत्ति न होती। पर दया को व्यापार का रूप देना उसने न सीखा था। होरी ने घर आ कर धनिया से कहा - अब? धनिया ने उसी पर दिल का गुबार निकाला - यही तो तुम चाहते थे! होरी ने जख्मी आँखों से देखा - मेरा ही दोस है? 'किसी का दोस हो, हुई तुम्हारे मन की।' 'तेरी इच्छा है कि जमीन रेहन रख दूँ?' 'जमीन रेहन रख दोगे, तो करोगे क्या?' 'मजूरी'?
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