मगर जमीन दोनों को एक-सी प्यारी थी। उसी पर तो उनकी इज्जत और आबरू अवलंबित थी। जिसके पास जमीन नहीं, वह गृहस्थ नहीं, मजूर है। होरी ने कुछ जवाब न पा कर पूछा - तो क्या कहती है? धनिया ने आहत कंठ से कहा - कहना क्या है। गौरी बारात ले कर आयँगे। एक जून खिला देना। सबेरे बेटी विदा कर देना। दुनिया हँसेगी, हँस ले। भगवान की यही इच्छा है, कि हमारी नाक कटे, मुँह में कालिख लगे तो हम क्या करेंगे! सहसा नोहरी चुँदरी पहने सामने से जाती हुई दिखाई दी। होरी को देखते ही उसने जरा-सा घूँघट-सा निकाल लिया। उससे समधी का नाता मानती थी। धनिया से उसका परिचय हो चुका था। उसने पुकारा - आज किधर चलीं समधिन? आओ, बैठो। नोहरी ने दिग्विजय कर लिया था और अब जनमत को अपने पक्ष में बटोर लेने का प्रयास कर रही थी। आ कर खड़ी हो गई। धनिया ने उसे सिर से पाँव तक आलोचना की आँखों से देख कर कहा - आज इधर कैसे भूल पड़ीं? नोहरी ने कातर स्वर में कहा - ऐसे ही तुम लोगों से मिलने चली आई। बिटिया का ब्याह कब तक है? धनिया संदिग्ध भाव से बोली - भगवान के अधीन है, जब हो जाए। 'मैंने तो सुना, इसी सहालग में होगा। तिथि ठीक हो गई है?' 'हाँ, तिथि तो ठीक हो गई है।' 'मुझे भी नेवता देना।' 'तुम्हारी तो लड़की है, नेवता कैसा?' 'दहेज का सामान तो मँगवा लिया होगा? जरा मैं भी देखूँ।' धनिया असमंजस में पड़ी, क्या कहे। होरी ने उसे सँभाला - अभी तो कोई सामान नहीं मँगवाया है, और सामान क्या करना है, कुस-कन्या तो देना है। नोहरी ने अविश्वास-भरी आँखों से देखा - कुस-कन्या क्यों दोगे महतो, पहली बेटी है, दिल खोल कर करो। होरी हँसा, मानो कह रहा हो, तुम्हें चारों ओर हरा दिखाई देता होगा, यहाँ तो सूखा ही पड़ा हुआ है। 'रुपए-पैसे की तंगी है, क्या दिल खोल कर करूँ। तुमसे कौन परदा है?' 'बेटा कमाता है, तुम कमाते हो, फिर भी रुपए-पैसे की तंगी किसे बिस्वास आएगा?' 'बेटा ही लायक होता, तो फिर काहे का रोना था। चिट्ठी-पत्तर तक भेजता नहीं, रुपए क्या भेजेगा? यह दूसरा साल है, एक चिट्ठी नहीं।' इतने में सोना बैलों के चारे के लिए हरियाली का एक गट्ठर सिर पर लिए, यौवन को अपने अंचल से चुराती, बालिका-सी सरल, आई और गट्ठा वहीं पटक कर अंदर चली गई।
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