झुनिया को अब यह शंका होने लगी कि वह रखेली है, इसी से उसका यह अपमान हो रहा है। ब्याहता होती, तो गोबर की मजाल थी कि उसके साथ यह बर्ताव करता। बिरादरी उसे दंड देती, हुक्का-पानी बंद कर देती। उसने कितनी बड़ी भूल की कि इस कपटी के साथ घर से निकल भागी। सारी दुनिया में हँसी भी हुई और हाथ कुछ न आया। वह गोबर को अपना दुश्मन समझने लगी। न उसके खाने-पीने की परवा करती, न अपने खाने-पीने की। जब गोबर उसे मारता, तो उसे ऐसा क्रोध आता कि गोबर का गला छुरे से रेत डाले। गर्भ ज्यों-ज्यों पूरा होता जाता है, उसकी चिंता बढ़ती जाती है। इस घर में तो उसकी मरन हो जायगी। कौन उसकी देखभाल करेगा, कौन उसे सँभालेगा? और जो गोबर इसी तरह मारता-पीटता रहा, तब तो उसका जीवन नरक ही हो जायगा। एक दिन वह बंबे पर पानी भरने गई, तो पड़ोस की एक स्त्री ने पूछा - कै महीने है रे? झुनिया ने लजा कर कहा - क्या जाने दीदी, मैंने तो गिना-गिनाया नहीं है। दोहरी देह की, काली-कलूटी, नाटी, कुरूपा, बड़े-बड़े स्तनों वाली स्त्री थी। उसका पति एक्का हाँकता था और वह खुद लकड़ी की दुकान करती थी। झुनिया कई बार उसकी दुकान से लकड़ी लाई थी। इतना ही परिचय था। मुस्करा कर बोली - मुझे तो जान पड़ता है, दिन पूरे हो गए हैं। आज ही कल में होगा। कोई दाई-वाई ठीक कर ली है? झुनिया ने भयातुर स्वर में कहा - मैं तो यहाँ किसी को नहीं जानती। 'तेरा मर्दुआ कैसा है, जो कान में तेल डाले बैठा है?' 'उन्हें मेरी क्या फिकर!' 'हाँ, देख तो रही हूँ। तुम तो सौर में बैठोगी, कोई करने-धरने वाला चाहिए कि नहीं? सास-ननद, देवरानी-जेठानी, कोई है कि नहीं? किसी को बुला लेना था।' 'मेरे लिए सब मर गए।' वह पानी ला कर जूठे बरतन माँजने लगी, तो प्रसव की शंका से हृदय में धड़कनें हो रही थीं। सोचने लगी - कैसे क्या होगा भगवान? उँह! यही तो होगा, मर जाऊँगी, अच्छा है, जंजाल से छूट जाऊँगी। शाम को उसके पेट में दर्द होने लगा। समझ गई विपत्ति की घड़ी आ पहुँची। पेट को एक हाथ से पकड़े हुए पसीने से तर उसने चूल्हा जलाया, खिचड़ी डाली और दर्द से व्याकुल हो कर वहीं जमीन पर लेट रही। कोई दस बजे रात को गोबर आया, ताड़ी की दुर्गंध उड़ाता हुआ। लटपटाती हुई जबान से ऊटपटाँग बक रहा था - मुझे किसी की परवा नहीं है। जिसे सौ दफे गरज हो, रहे, नहीं चला जाए। मैं किसी का ताव नहीं सह सकता। अपने माँ-बाप का ताव नहीं सहा, जिनने जनम दिया। तब दूसरों का ताव क्यों सहूँ? जमादार आँखें दिखाता है। यहाँ किसी की धौंस सहने वाले नहीं हैं। लोगों ने पकड़ न लिया होता, तो खून पी जाता, खून! कल देखूँगा बचा को। फाँसी ही तो होगी। दिखा दूँगा कि मर्द कैसे मरते हैं। हँसता हुआ, अकड़ता हुआ, मूँछों पर ताव देता हुआ फाँसी के तख्ते पर जाऊँ, तो सही। औरत की जात! कितनी बेवफा होती है। खिचड़ी डाल दी और टाँग पसार कर सो रही। कोई खाय या न खाय, उसकी बला से। आप मजे से फुलके उड़ाती है, मेरे लिए खिचड़ी! अच्छा सता ले जितना सताते बने, तुझे भगवान सताएँगे। जो न्याय करते हैं। उसने झुनिया को जगाया नहीं। कुछ बोला भी नहीं। चुपके से खिचड़ी थाली में निकाली और दो-चार कौर निगल कर बरामदे में लेट रहा। पिछले पहर उसे सर्दी लगी। कोठरी से कंबल लेने गया तो झुनिया के कराहने की आवाज सुनी। नशा उतर चुका था। पूछा - कैसा जी है झुनिया! कहीं दरद है क्या। 'हाँ, पेट में जोर से दरद हो रहा है?' 'तूने पहले क्यों नहीं कहा अब इस बखत कहाँ जाऊँ?' 'किससे कहती?' 'मैं मर गया था क्या?' 'तुम्हें मेरे मरने-जीने की क्या चिंता?'
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