मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-29

पेज-297

आखिर सोना ने रूखे स्वर में पूछा - इतनी रात को कैसे चलीं, सिल्लो?

सिल्लो ने आँसुओं को रोकने की चेष्टा करके कहा - तुमसे मिलने को बहुत जी चाहता था। इतने दिन हो गए, भेंट करने चली आई।

सोना का स्वर और कठोर हुआ - लेकिन आदमी किसी के घर जाता है, तो दिन को कि इतनी रात गए?

वास्तव में सोना को उसका आना बुरा लग रहा था। वह समय उसकी प्रेम-क्रीड़ा और हास-विलास का था, सिल्लो ने उसमें बाधक हो कर जैसे उसके सामने से परोसी हुई थाली खींच ली थी।

सिल्लो नि:संज्ञ-सी भूमि की ओर ताक रही थी। धरती क्यों नहीं फट जाती कि वह उसमें समा जाए। इतना अपमान! उसने अपने इतने ही जीवन में बहुत अपमान सहा था, बहुत दुर्दशा देखी थी, लेकिन आज यह फांस जिस तरह उसके अंत:करण में चुभ गई, वैसी कभी कोई बात न चुभी थी। गुड़ घर के अंदर मटकों में बंद रखा हो, तो कितना ही मूसलाधार पानी बरसे, कोई हानि नहीं होती, पर जिस वक्त वह धूप में सूखने के लिए बाहर फैलाया गया हो, उस वक्त तो पानी का एक छींटा भी उसका सर्वनाश कर देगा। सिलिया के अंत:करण की सारी कोमल भावनाएँ इस वक्त मुँह खोले बैठी थीं कि आकाश से अमृत-वर्षा होगी। बरसा क्या, अमृत के बदले विष, और सिलिया के रोम-रोम में दौड़ गया। सर्प-दंश के समान लहरें आईं। घर में उपवास करे सो रहना और बात है, लेकिन पंगत से उठा दिया जाना तो डूब मरने की बात है। सिलिया को यहाँ एक क्षण ठहरना भी असहाय हो गया, जैसे कोई उसका गला दबाए हुए हो। वह कुछ न पूछ सकी। सोना के मन में क्या है, यह वह भाँप रही थी। वह बांबी में बैठा हुआ साँप कहीं बाहर न निकल आए, इसके पहले ही वह वहाँ से भाग जाना चाहती थी। कैसे भागे, क्या बहाना करे? उसके प्राण क्यों नहीं निकल जाते!

मथुरा ने भंडारे की कुंजी उठा ली थी कि सिलिया के जलपान के लिए कुछ निकाल लाए, कर्तव्यविमूढ़-सा खड़ा था। इधर सिल्लो की साँस टँगी हुई थी, मानो सिर पर तलवार लटक रही हो।

 

 

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