मेहता ने दार्शनिक मुस्कान के साथ कहा - जिस तरी पर बैठे हम लोग जीवन-यात्रा कर रहे हैं, वह तो इससे कहीं निस्सार है मालती? क्या डर रही हो? 'डर किस बात का, जब तुम साथ हो।' 'सच कहती हो?' 'अब तक मैंने बगैर किसी की सहायता के बाधाओं को जीता है। अब तो तुम्हारे संग हूँ।' दोनों उस झाऊ के तख्ते पर बैठे और मेहता ने झाऊ के एक डंडे से ही उसे खेना शुरू किया। तख्ता डगमगाता हुआ पानी में चला। मालती ने मन को इस तख्ते से हटाने के लिए पूछा - तुम हो हमेशा शहरों में रहे, गाँव के जीवन का तुम्हें कैसे अभ्यास हो गया? मैं तो ऐसा तख्ता कभी न बना सकती। मेहता ने उसे अनुरक्त नेत्रों से देख कर कहा - शायद यह मेरे पिछले जन्म का संस्कार है। प्रकृति से स्पर्श होते ही जैसे मुझमें नया जीवन-सा आ जाता है, नस-नस में स्फूर्ति दौड़ने लगती है। एक-एक पक्षी, एक-एक पशु, जैसे मुझे आनंद का निमंत्रण देता हुआ जान पड़ता है, मानो भूले हुए सुखों की याद दिला रहा हो। यह आनंद मुझे और कहीं नहीं मिलता मालती, संगीत के रुलानेवाले स्वरों में भी नहीं, दर्शन की ऊँची उड़ानों में भी नहीं। जैसे ये सब मेरे अपने सगे हों। प्रकृति के बीच आ कर मैं जैसे अपने-आपको पा जाता हूँ, जैसे पक्षी अपने घोंसले में आ जाए। तख्ता डगमगाता, कभी तिरछा, कभी सीधा, कभी चक्कर खाता हुआ चला जा रहा था। सहसा मालती ने कातर-कंठ से पूछा - और मैं तुम्हारे जीवन में कभी नहीं आती? मेहता ने उसका हाथ पकड़ कर कहा - आती हो, बार-बार आती हो, सुगंध के एक झोंके की तरह, कल्पना की एक छाया की तरह और फिर अदृश्य हो जाती हो। दौड़ता हूँ कि तुम्हें करपाश में बाँध लूँ, पर हाथ खुले रह जाते हैं। और तुम गायब हो जाती हो। मालती ने उन्माद की दशा में कहा - लेकिन तुमने इसका कारण भी सोचा? समझना चाहा? 'हाँ मालती, बहुत सोचा, बार-बार सोचा।' 'तो क्या मालूम हुआ?' 'यही कि मैं जिस आधार पर जीवन का भवन खड़ा करना चाहता हूँ, वह अस्थिर है। यह कोई विशाल भवन नहीं है, केवल एक छोटी-सी शांत कुटिया है, लेकिन उसके लिए भी तो कोई स्थिर आधार चाहिए।'
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