मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-33

पेज-330

मगर वहाँ तो संदूक खाली था और किसी दुकान पर बे-पैसे जाने का साहस न पड़ता था। मालती के घर जायँ तो कौन मुँह ले कर? दिल में तड़प-तड़प कर रह जाते थे। एक दिन नई विपत्ति आ पड़ी। इधर कई महीने से मकान का किराया नहीं दिया था। पचहत्तर रुपए माहवार बढ़ते जाते थे। मकानदार ने, जब बहुत तकाजे करने पर भी रुपए वसूल न कर पाए, तो नोटिस दे दी, मगर नोटिस रुपए गढ़ने का कोई जंतर तो है नहीं। नोटिस की तारीख निकल गई और रुपए न पहुँचे। तब मकानदार ने मजबूर हो कर नालिश कर दी। वह जानता था, मेहता जी बड़े सज्जन और परोपकारी पुरुष हैं लेकिन इससे ज्यादा भलमनसी वह क्या करता कि छ: महीने सब्र किए बैठा रहा। मेहता ने किसी तरह की पैरवी न की, एकतरफा डिगरी हो गई, मकानदार ने तुरंत डिगरी जारी कराई और कुर्क अमीन मेहता साहब के पास पूर्व सूचना देने आया, क्योंकि उसका लड़का यूनिवर्सिटी में पढ़ता था और उसे मेहता कुछ वजीफा भी देते थे। संयोग से उस वक्त मालती भी बैठी थी।

बोली - कैसी कुर्की है? किस बात की?

अमीन ने कहा - वही किराए की डिगरी जो हुई थी, मैंने कहा - हुजूर को इत्तला दे दूँ। चार-पाँच सौ का मामला है, कौन-सी बड़ी रकम है। दस दिन में भी रुपए दे दीजिए, तो कोई हरज नहीं। मैं महाजन को दस दिन तक उलझाए रहूँगा।

जब अमीन चला गया तो मालती ने तिरस्कार-भरे स्वर में पूछा - अब यहाँ तक नौबत पहुँच गई। मुझे आश्चर्य होता है कि तुम इतने मोटे-मोटे ग्रंथ कैसे लिखते हो! मकान का किराया छ:-छ: महीने से बाकी पड़ा है और तुम्हें खबर नहीं?

मेहता लज्जा से सिर झुका कर बोले - खबर क्यों नहीं है, लेकिन रुपए बचते ही नहीं। मैं एक पैसा भी व्यर्थ नहीं खर्च करता।

'कोई हिसाब-किताब भी लिखते हो?'

'हिसाब क्यों नहीं रखता। जो कुछ पाता हूँ, वह सब दर्ज करता जाता हूँ, नहीं इनकमटैक्स वाले जिंदा न छोड़ें।'

'और जो कुछ खर्च करते हो वह?'

'उसका तो कोई हिसाब नहीं रखता।'

'क्यों?'

'कौन लिखे,बोझ-सा लगता है।'

'और यह पोथे कैसे लिख डालते हो?'

'उसमें तो विशेष कुछ नहीं करना पड़ता। कलम ले कर बैठ जाता हूँ। हर वक्त खर्च का खाता तो खोल कर नहीं बैठता।'

'तो रुपए कैसे अदा करोगे?'

'किसी से कर्ज ले लूँगा। तुम्हारे पास हो तो दे दो।'

'मैं तो एक शर्त पर दे सकती हूँ। तुम्हारी आमदनी सब मेरे हाथों में आए और खर्च भी मेरे हाथों से हो।'

मेहता प्रसन्न हो कर बोले - वाह, अगर यह भार ले लो, तो क्या कहना, मूसलों ढोल बजाऊँ।

 

 

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