मालती ने डिगरी के रुपए चुका दिए और दूसरे ही दिन मेहता को वह बँगला खाली करने पर मजबूर किया। अपने बँगले में उसने उनके लिए दो बड़े-बड़े कमरे दे दिए। उनके भोजन आदि का प्रबंध भी अपने ही गृहस्थी में कर दिया। मेहता के पास सामान तो ज्यादा न था, मगर किताबें कई गाड़ी थीं। उनके दोनों कमरे पुस्तकों से भर गए। अपना बगीचा छोड़ने का उन्हें जरूर कलक हुआ, लेकिन मालती ने अपना पूरा अहाता उनके लिए छोड़ दिया कि जो फूल-पत्तियाँ चाहें लगाएँ। मेहता तो निश्चिंत हो गए; लेकिन मालती को उनकी आय-व्यय पर नियंत्रण करने में बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा। उसने देखा, आय तो एक हजार से ज्यादा है; मगर वह सारी की सारी गुप्तदान में उड़ जाती है। बीस-पच्चीस लड़के उन्हीं से वजीफा पा कर विद्यालय में पढ़ रहे थे। विधवाओं की तादाद भी इससे कम न थी। इस खर्च में कैसे कमी करे, यह उसे न सूझता था। सारा दोष उसी के सिर मढ़ा जायगा, सारा अपयश उसी के हिस्से पड़ेगा। कभी मेहता पर झुँझलाती, कभी अपने ऊपर, कभी प्रार्थियों के ऊपर जो एक सरल, उदार प्राणी पर अपना भार रखते जरा भी न सकुचाते थे। यह देख कर और झुँझलाहट होती थी कि इन दान लेने वालों में कुछ तो इसके पात्र ही न थे। एक दिन उसने मेहता को आड़े हाथों लिया। मेहता ने उसका आक्षेप सुन कर निश्चिंत भाव से कहा - तुम्हें अख्तियार है, जिसे चाहे दो, चाहे न दो। मुझसे पूछने की कोई जरूरत नहीं। हाँ, जवाब भी तुम्हीं को देना पड़ेगा। मालती ने चिढ़ कर कहा - हाँ, और क्या, यश तो तुम लो, अपयश मेरे सिर मढ़ो। मैं नहीं समझती, तुम किस तर्क से इस दान-प्रथा का समर्थन कर सकते हो। मनुष्य-जाति को इस प्रथा ने जितना आलसी और मुफ्तखोर बनाया है और उसके आत्मगौरव पर जैसा आघात किया है, उतना अन्याय ने भी न किया होगा, बल्कि मेरे खयाल में अन्याय ने मनुष्य-जाति में विद्रोह की भावना उत्पन्न करके समाज का बड़ा उपकार किया है। मेहता ने स्वीकार किया - मेरा भी यही खयाल है। 'तुम्हारा यह खयाल नहीं है।' 'नहीं मालती, मैं सच कहता हूँ।' 'तो विचार और व्यवहार में इतना भेद क्यों?' मालती ने तीसरे महीने बहुतों को निराश किया। किसी को साफ जवाब दिया, किसी से मजबूरी जताई, किसी की फजीहत की। मिस्टर मेहता का बजट तो धीरे-धीरे ठीक हो गया, मगर इससे उनको एक प्रकार की ग्लानि हुई। मालती ने जब तीसरे महीने में तीन सौ बचत दिखाई, तब वह उससे कुछ बोले नहीं, मगर उनकी दृष्टि में उसका गौरव कुछ कम अवश्य हो गया। नारी में दान और त्याग होना चाहिए। उसकी यही सबसे बड़ी विभूति है। इसी आधार पर समाज का भवन खड़ा है। वणिक-बुद्धि को वह आवश्यक बुराई ही समझते थे। जिस दिन मेहता की अचकनें बन कर आईं और नई घड़ी आई, वह संकोच के मारे कई दिन बाहर न निकले। आत्म-सेवा से बड़ा उनकी नजर में दूसरा अपराध न था।
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