मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-33

पेज-335

मिस्टर मेहता को भी बालक से स्नेह हो गया था। एक दिन मालती ने उसे गोद में ले कर उनकी मूँछें उखड़वा दी थीं। दुष्ट ने मूँछों को ऐसा पकड़ा था कि समूल ही उखाड़ लेगा। मेहता की आँखों में आँसू भर आए थे।

मेहता ने बिगड़ कर कहा था - बड़ा शैतान लौंडा है।

मालती ने उन्हें डाँटा था - तुम मूँछें साफ क्यों नहीं कर लेते?

'मेरी मूँछें मुझे प्राणों से प्रिय हैं।'

'अबकी पकड़ लेगा, तो उखाड़ कर ही छोड़ेगा।'

'तो मैं इसके कान भी उखाड़ लूँगा।'

मंगल को उनकी मूँछें उखाड़ने में कोई खास मजा आया था। वह खूब खिल-खिला कर हँस रहा था और मूँछों को और जोर से खींचा था, मगर मेहता को भी शायद मूँछें उखड़वाने में मजा आया था, क्योंकि वह प्राय: दो-तीन बार रोज उससे अपने मूँछों की रस्साकशी करा लिया करते थे।

इधर जब से मंगल को चेचक निकल आई थी, मेहता को भी बड़ी चिंता हो गई थी। अक्सर कमरे में जा कर मंगल को व्यथित आँखों से देखा करते। उसके कष्टों की कल्पना करके उनका कोमल हृदय हिल जाता था। उनके दौड़-धूप से वह अच्छा हो जाता, तो पृथ्वी के उस छोर तक दौड़ लगाते, रुपए खर्च करने से अच्छा होता, तो चाहे भीख ही माँगना पड़ता, वह उसे अच्छा करके ही रहते, लेकिन यहाँ कोई बस न था। उसे छूते भी उनके हाथ काँपते थे। कहीं उसके आंवले न टूट जाय। मालती कितने कोमल हाथों से उसे उठाती है, कंधों पर उठा कर कमरे में टहलाती है और कितने स्नेह से उसे बहला कर दूध पिलाती है। यह वात्सल्य मालती को उनकी दृष्टि में न जाने कितना ऊँचा उठा देता है। मालती केवल रमणी नहीं है, माता भी है और ऐसी-वैसी माता भी नहीं, सच्चे अर्थो में देवी और माता और जीवन देने वाली, जो पराए बालक को भी अपना सकती है, जैसे उसने मातापन का सदैव संचय किया हो और आज दोनों हाथों से उसे लुटा रही हो। उसके अंग-अंग से मातापन फूटा पड़ता था, मानो यही उसका यथार्थ रूप हो। यह हाव-भाव, यह शौक-सिंगार उसके मातापन के आवरण-मात्र हों, जिसमें उस विभूति की रक्षा होती रहे।

रात का एक बज गया था। मंगल का रोना सुन कर मेहता चौंक पड़े। सोचा, बेचारी मालती आधी रात तक तो जागती रही होगी, इस वक्त उसे उठने में कितना कष्ट होगा, अगर द्वार खुला हो तो मैं ही बच्चे को चुप करा दूँ। तुरंत उठ कर उस कमरे के द्वार पर आए और शीशे से अंदर झाँका। मालती बच्चे को गोद में लिए बैठी थी और बच्चा अनायास ही रो रहा था। शायद उसने कोई स्वप्न देखा था, या और किसी वजह से डर गया था। मालती चुमकारती थी, थपकती थी, तस्वीरें दिखाती थी, गोद में ले कर टहलती थी, पर बच्चा चुप होने का नाम न लेता था। मालती का यह अटूट वात्सल्य, यह अदम्य मातृ-भाव देख कर उनकी आँखें सजल हो गईं। मन में ऐसा पुलक उठा कि अंदर जा कर मालती के चरणों को हृदय से लगा लें। अंतस्तल से अनुराग में डूबे हुए शब्दों का एक समूह मचल पड़ा - प्रिए, मेरे स्वर्ग की देवी, मेरी रानी, डार्लिंग.....

और उसी प्रेमोन्माद में उन्होंने पुकारा - मालती, जरा द्वार खोल दो।

मालती ने आ कर द्वार खोल दिया और उनकी ओर जिज्ञासा की आँखों से देखा।

मेहता ने पूछा - क्या झुनिया नहीं उठी? यह तो बहुत रो रहा है।

मेहता ने संवेदना-भरे स्वर में कहा - आज आठवाँ दिन है, पीड़ा अधिक होगी। इसी से।

'तो लाओ, मैं कुछ देर टहला दूँ, तुम थक गई होगी।'

मालती ने मुस्करा कर कहा - तुम्हें जरा ही देर में गुस्सा आ जायगा।

बात सच थी, मगर अपनी कमजोरी को कौन स्वीकार करता है? मेहता ने जिद करके कहा - तुमने मुझे इतना हल्का समझ लिया है?

 

 

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