मालती ने बच्चे को उनकी गोद में दे दिया। उनकी गोद में जाते ही वह एकदम चुप हो गया। बालकों में जो एक अंतर्ज्ञान होता है, उसने उसे बता दिया, अब रोने में तुम्हारा कोई फायदा नहीं। यह नया आदमी स्त्री नहीं, पुरुष है और पुरुष गुस्सेवर होता है और निर्दयी भी होता है और चारपाई पर लेटा कर, या बाहर अँधेरे में सुला कर दूर चला जा सकता है और किसी को पास आने भी न देगा। मेहता ने विजय-गर्व से कहा - देखा, कैसा चुप कर दिया ! मालती ने विनोद किया - हाँ, तुम इस कला में भी कुशल हो। कहाँ सीखी? 'तुमसे।' 'मैं स्त्री हूँ और मुझ पर विश्वास नहीं किया जा सकता।' मेहता ने लज्जित हो कर कहा - मालती, मैं तुमसे हाथ जोड़ कर कहता हूँ, मेरे उन शब्दों को भूल जाओ। इन कई महीनों में कितना पछताया हूँ, कितना लज्जित हुआ हूँ, कितना दु:खी हुआ हूँ, शायद तुम इसका अंदाज न कर सको। मालती ने सरल भाव से कहा - मैं तो भूल गई, सच कहती हूँ। 'मुझे कैसे विश्वास आए?' 'उसका प्रमाण यही है कि हम दोनों एक ही घर में रहते हैं, एक साथ खाते हैं, हँसते हैं, बोलते हैं।' 'क्या मुझे कुछ याचना करने की अनुमति न दोगी?' उन्होंने मंगल को खाट पर लिटा दिया, जहाँ वह दुबक कर सो रहा। और मालती की ओर प्रार्थी आँखों से देखा, जैसे उसकी अनुमति पर उनका सब कुछ टिका हुआ हो। मालती ने आर्द्र हो कर कहा - तुम जानते हो, तुमसे ज्यादा निकट संसार में मेरा कोई दूसरा नहीं है। मैंने बहुत दिन हुए, अपने को तुम्हारे चरणों पर समर्पित कर दिया। तुम मेरे पथ-प्रदर्शक हो, मेरे देवता हो, मेरे गुरू हो। तुम्हें मुझसे कुछ याचना करने की जरूरत नहीं, मुझे केवल संकेत कर देने की जरूरत है। जब तक मुझे तुम्हारे दर्शन न हुए थे और मैंने तुम्हें पहचाना न था, भोग और आत्म-सेवा ही मेरे जीवन का इष्ट था। तुमने आ कर उसे प्रेरणा दी, स्थिरता दी। मैं तुम्हारे एहसान कभी नहीं भूल सकती। मैंने नदी की तट वाली तुम्हारी बातें गाँठ बाँध लीं। दु:ख यही हुआ कि तुमने भी मुझे वही समझा, जो कोई दूसरा पुरुष समझता, जिसकी मुझे तुमसे आशा न थी। उसका दायित्व मेरे ऊपर है, यह मैं जानती हूँ, लेकिन तुम्हारा अमूल्य प्रेम पा कर भी मैं वही बनी रहूँगी, ऐसा समझ कर तुमने मेरे साथ अन्याय किया। मैं इस समय कितने गर्व का अनुभव कर रही हूँ, यह तुम नहीं समझ सकते। तुम्हारा प्रेम और विश्वास पा कर अब मेरे लिए कुछ भी शेष नहीं रह गया है। यह वरदान मेरे जीवन को सार्थक कर देने के लिए काफी है। यह मेरी पूर्णता है। यह कहते-कहते मालती के मन में ऐसा अनुराग उठा कि मेहता के सीने से लिपट जाए। भीतर की भावनाएँ बाहर आ कर मानो सत्य हो गई थीं। उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। जिस आनंद को उसने दुर्लभ समझ रखा था, वह इतना सुलभ, इतना समीप है! और हृदय का वह आह्लाद मुख पर आ कर उसे ऐसी शोभा देने लगा कि मेहता को उसमें देवत्व की आभा दिखी। यह नारी है, या मंगल की, पवित्रता की और त्याग की प्रतिमा!
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