मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-34

पेज-341

मातादीन उस दिन खुल पड़ा। परदा होता है हवा के लिए। आँधी में परदे उठाके रख दिए जाते हैं कि आँधी के साथ उड़ न जायँ। उसने शव को दोनों हथेलियों पर उठा लिया और अकेला नदी के किनारे तक ले गया, जो एक मील का पाट छोड़ कर पतली-सी धार में समा गई थी। आठ दिन तक उसके हाथ सीधे न हो सके। उस दिन वह जरा भी नहीं लजाया, जरा भी नहीं झिझका।

और किसी ने कुछ कहा भी नहीं, बल्कि सभी ने उसके साहस और दृढ़ता की तारीफ की।

होरी ने कहा - यही मरद का धरम है। जिसकी बाँह पकड़ी, उसे क्या छोड़ना!

धनिया ने आँखें नचा कर कहा - मत बखान करो, जी जलता है। यह मरद है? मैं ऐसे मरद को नामरद कहती हूँ। जब बाँह पकड़ी थी, तब क्या दूध पीता था कि सिलिया बांभनी हो गई थी?

एक महीना बीत गया। सिलिया फिर मजूरी करने लगी थी। संध्या हो गई थी। पूर्णमासी का चाँद विहँसता-सा निकल आया था। सिलिया ने कटे हुए खेत में से गिरे हुए जौ के बाल चुन कर टोकरी में रख लिए थे और घर जाना चाहती थी कि चाँद पर निगाह पड़ गई और दर्द-भरी स्मृतियों का मानो स्रोत खुल गया। आँचल दूध से भीग गया और मुख आँसुओं से। उसने सिर लटका लिया और जैसे रूदन का आनंद लेने लगी।

सहसा किसी की आहट पा कर वह चौंक पड़ी। मातादीन पीछे से आ कर सामने खड़ा हो गया और बोला - कब तक रोए जायगी सिलिया? रोने से वह फिर तो न आ जायगा।

और यह कहते-कहते वह खुद रो पड़ा।

सिलिया के कंठ में आए हुए भर्त्सना के शब्द पिघल गए। आवाज सँभाल कर बोली - तुम आज इधर कैसे आ गए?

मातादीन कातर हो कर बोला - इधर से जा रहा था। तुझे बैठा देखा, चला आया।

'तुम तो उसे खेला भी न पाए।'

'नहीं सिलिया, एक दिन खेलाया था।'

'सच?'

'सच!'

'मैं कहाँ थी?'

'तू बाजार गई थी?'

'तुम्हारी गोद में रोया नहीं?'

'नहीं सिलिया, हँसता था।'

'सच?'

'सच!'

'बस, एक ही दिन खेलाया?'

'हाँ, एक ही दिन, मगर देखने रोज आता था। उसे खटोले पर खेलते देखता था और दिल थामकर चला जाता था।'

'तुम्हीं को पड़ा था।'

'मुझे तो पछतावा होता है कि नाहक उस दिन उसे गोद में लिया। यह मेरे पापों का दंड है।'

सिलिया की आँखों में क्षमा झलक रही थी। उसने टोकरी सिर पर रख ली और घर चली। मातादीन भी उसके साथ-साथ चला।

सिलिया ने कहा - मैं तो अब धनिया काकी के बरौठे में सोती हूँ। अपने घर में अच्छा नहीं लगता।

'धनिया मुझे बराबर समझाती रहती थी।'

'सच?'

'हाँ सच। जब मिलती थी, समझाने लगती थी।'

गाँव के समीप आ कर सिलिया ने कहा - अच्छा, अब इधर से अपने घर जाओ। कहीं पंडित देख न लें।

 

 

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