मातादीन ने गर्दन उठा कर कहा - मैं अब किसी से नहीं डरता। 'घर से निकाल देंगे तो कहाँ जाओगे?' 'मैंने अपना घर बना लिया है।' 'सच?' 'हाँ, सच।' 'कहाँ, मैंने तो नहीं देखा।' 'चल तो दिखाता हूँ।' दोनों और आगे बढ़े। मातादीन आगे था। सिलिया पीछे। होरी का घर आ गया। मातादीन उसके पिछवाड़े जा कर सिलिया की झोपड़ी के द्वार पर खड़ा हो गया और बोला - यही मेरा घर है। सिलिया ने अविश्वास, क्षमा, व्यंग और दु:ख भरे स्वर में कहा - यह तो सिलिया चमारिन का घर है। मातादीन ने द्वार की टाटी खोलते हुए कहा - यह मेरी देवी का मंदिर है। सिलिया की आँखें चमकने लगीं। बोली - मंदिर है तो एक लोटा पानी उँड़ेल कर चले जाओगे! मातादीन ने उसके सिर की टोकरी उतारते हुए कंपित स्वर में कहा - नहीं सिलिया, जब तक प्राण है, तेरी शरण में रहूँगा। तेरी ही पूजा करूँगा! 'झूठ कहते हो।' 'नहीं, मैं तेरे चरण छू कर कहता हूँ। सुना, पटवारी का लौंडा भुनेसरी तेरे पीछे बहुत पड़ा था। तूने उसे खूब डाँटा।' 'तुमसे किसने कहा?' 'भुनेसरी आप ही कहता था।' 'सच?' 'हाँ, सच।' सिलिया ने दियासलाई से कुप्पी जलाई। एक किनारे मिट्टी का घड़ा था, दूसरी ओर चूल्हा था, जहाँ दो-तीन पीतल और लोहे के बासन मँजे-धुले रखे थे। बीच में पुआल बिछा था। वहीं सिलिया का बिस्तर था। इस बिस्तर के सिरहाने की ओर रामू की छोटी-सी खटोली जैसे रो रही थी, और उसी के पास दो-तीन मिट्टी के हाथी-घोड़े अंग-भंग दशा में पड़े हुए थे। जब स्वामी ही न रहा तो कौन उनकी देखभाल करता? मातादीन पुआल पर बैठ गया। कलेजे में हूक-सी उठ रही थी, जी चाहता था, खूब रोए। सिलिया ने उसकी पीठ पर हाथ रख कर पूछा - तुम्हें कभी मेरी याद आती थी? मातादीन ने उसका हाथ पकड़ कर हृदय से लगा कर कहा - तू हरदम मेरी आँखों के सामने फिरती रहती थी। तू भी कभी मुझे याद करती थी। 'मेरा तो तुमसे जी जलता था।' 'और दया नहीं आती थी?' 'कभी नहीं।' 'तो भुनेसरी?' 'अच्छा, गाली मत दो। मैं डर रही हूँ, कि गाँव वाले क्या कहेंगे।' 'जो भले आदमी हैं, वह कहेंगे, यही इसका धरम था। जो बुरे हैं, उनकी मैं परवा नहीं करता।' 'और तुम्हारा खाना कौन पकाएगा?' 'मेरी रानी, सिलिया।' 'तो बांभन कैसे रहोगे?' 'मैं बांभन नहीं, चमार ही रहना चाहता हूँ। जो अपना धरम पाले, वही बांभन है, जो धरम से मुँह मोड़े, वही चमार है।' सिलिया ने उसके गले में बाँहे डाल दीं।
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