दो दिन गुजर गए और इस मामले पर उन लोगों में कोई बातचीत न हुई। हाँ, दोनों सांकेतिक भाषा में बातें करते थे। धनिया कहती - वर-कन्या जोड़ के हों, तभी ब्याह का आनंद है। होरी जवाब देता - ब्याह आनंद का नाम नहीं है पगली, यह तो तपस्या है। 'चलो तपस्या है?' 'हाँ, मैं कहता जो हूँ। भगवान आदमी को जिस दसा में डाल दें, उसमें सुखी रहना तपस्या नहीं, तो और क्या है?' दूसरे दिन धनिया ने वैवाहिक आनंद का दूसरा पहलू सोच निकाला। घर में जब तक सास-ससुर, देवरानियाँ-जेठानियाँ न हों, तो ससुराल का सुख ही क्या? कुछ दिन तो लड़की बहुरिया बनने का सुख पाए। होरी ने कहा - वह वैवाहिक-जीवन का सुख नहीं, दंड है। धनिया तिनक उठी - तुम्हारी बातें भी निराली होती हैं। अकेली बहू घर में कैसे रहेगी, न कोई आगे न कोई पीछे। होरी बोला - तू तो इस घर में आई तो एक नहीं, दो-दो देवर थे, सास थी, ससुर था। तूने कौन-सा सुख उठा लिया, बता? 'क्या सभी घरों में ऐसे ही प्राणी होते हैं।' 'और नहीं तो क्या आकाश की देवियाँ आ जाती हैं? अकेली तो बहू! उस पर हुकूमत करने वाला सारा घर। बेचारी किस-किसको खुस करे। जिसका हुक्म न माने, वही बैरी। सबसे भला अकेला।' फिर भी बात यहीं तक रह गई, मगर धनिया का पल्ला हल्का होता जाता था। चौथे दिन रामसेवक महतो खुद आ पहुँचे। कलां-रास घोड़े पर सवार, साथ एक नाई और एक खिदमतगार, जैसे कोई बड़ा जमींदार हो। उम्र चालीस से ऊपर थी, बाल खिचड़ी हो गए थे, पर चेहरे पर तेज था, देह गठी हुई। होरी उनके सामने बिलकुल बूढ़ा लगता था। किसी मुकदमे की पैरवी करने जा रहे थे। यहाँ जरा दोपहरी काट लेना चाहते हैं। धूप कितनी तेज है, और कितने जोरों की लू चल रही है। होरी सहुआइन की दुकान से गेहूँ का आटा और घी लाया। पूरियाँ बनीं। तीनों मेहमानों ने खाया। दातादीन भी आशीर्वाद देने आ पहुँचे। बातें होने लगीं।
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