मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-35

पेज-343

होरी की दशा दिन-दिन गिरती ही जाती थी। जीवन के संघर्ष में उसे सदैव हार हुई, पर उसने कभी हिम्मत नहीं हारी। प्रत्येक हार जैसे उसे भाग्य से लड़ने की शक्ति दे देती थी, मगर अब वह उस अंतिम दशा को पहुँच गया था, जब उसमें आत्मविश्वास भी न रहा था। अगर वह अपने धर्म पर अटल रह सकता, तो भी कुछ आँसू पुँछते, मगर वह बात न थी। उसने नीयत भी बिगाड़ी, अधर्म भी कमाया, कोई ऐसी बुराई न थी, जिसमें वह पड़ा न हो, पर जीवन की कोई अभिलाषा न पूरी हुई, और भले दिन मृगतृष्णा की भाँति दूर ही होते चले गए, यहाँ तक कि अब उसे धोखा भी न रह गया था, झूठी आशा की हरियाली और चमक भी अब नजर न आती थी।

हारे हुए महीप की भाँति उसने अपने को इस तीन बीघे के किले में बंद कर लिया था और उसे प्राणों की तरह बचा रहा था। फाके सहे, बदनाम हुआ, मजूरी की, पर किले को हाथ से न जाने दिया, मगर अब वह किला भी हाथ से निकला जाता था। तीन साल से लगान बाकी पड़ा हुआ था और अब पंडित नोखेराम ने उस पर बेदखली का दावा कर दिया था। कहीं से रुपए मिलने की आशा न थी। जमीन उसके हाथ से निकल जायगी और उसके जीवन के बाकी दिन मजूरी करने में कटेंगे। भगवान की इच्छा! रायसाहब को क्या दोष दे? असामियों ही से उनका भी गुजर है। इसी गाँव पर आधे से ज्यादा घरों पर बेदखली आ रही है, आवे। औरों की जो दशा होगी, वही उसकी भी होगी। भाग्य में सुख बदा होता, तो लड़का यों हाथ से निकल जाता?

साँझ हो गई थी। वह इसी चिंता में डूबा बैठा था कि पंडित दातादीन ने आ कर कहा - क्या हुआ होरी, तुम्हारी बेदखली के बारे में? इन दिनों नोखेराम से मेरी बोलचाल बंद है। कुछ पता नहीं। सुना, तारीख को पंद्रह दिन और रह गए हैं।

होरी ने उनके लिए खाट डाल कर कहा - वह मालिक हैं, जो चाहे करें, मेरे पास रुपए होते तो यह दुर्दसा क्यों होती। खाया नहीं, उड़ाया नहीं, लेकिन उपज ही न हो और जो हो भी, वह कौड़ियों के मोल बिके, तो किसान क्या करे?

'लेकिन जैजात तो बचानी ही पड़ेगी। निबाह कैसे होगा? बाप-दादों की इतनी ही निसानी बच रही है। वह निकल गई, तो कहाँ रहोगे?'

'भगवान की मरजी है, मेरा क्या बस?'

'एक उपाय है, जो तुम करो।'

होरी को जैसे अभय-दान मिल गया। उनके पाँव पकड़ कर बोला - बड़ा धरम होगा महराज, तुम्हारे सिवा मेरा कौन है? मैं तो निरास हो गया था।

'निरास होने की कोई बात नहीं। बस, इतना ही समझ लो कि सुख में आदमी का धरम कुछ और होता है, दु:ख में कुछ और। सुख में आदमी दान देता है, मगर दु:ख में भीख तक माँगता है। उस समय आदमी का यही धरम हो जाता है। सरीर अच्छा रहता है, तो हम बिना असनान-पूजा किए मुँह में पानी भी नहीं डालते, लेकिन बीमार हो जाते हैं, तो बिना नहाए-धोए, कपड़े पहने, खाट पर बैठे पथ्य लेते हैं। उस समय का यही धरम है। यहाँ हममें-तुममें कितना भेद है, लेकिन जगन्नाथपुरी में कोई भेद नहीं रहता। ऊँचे-नीचे सभी एक पंगत में बैठ कर खाते हैं। आपत्काल में श्रीरामचंद्र ने सबरी के जूठे फल खाए थे, बालि का छिप कर बध किया था। जब संकट में बड़े-बड़ों की मर्जादा टूट जाती है, तो हमारी-तुम्हारी कौन बात है? रामसेवक महतो को तो जानते हो न?'

होरी ने निरूत्साह हो कर कहा - हाँ, जानता क्यों नहीं।

'मेरा जजमान है। बड़ा अच्छा जमाना है उसका। खेती अलग, लेन-देन अलग। ऐसे रोबदाब का आदमी ही नहीं देखा! कई महीने हुए उनकी औरत मर गई है। संतान कोई नहीं। अगर रुपिया का ब्याह उससे करना चाहो, तो मैं उसे राजी कर लूँ। मेरी बात वह कभी न टालेगा। लड़की सयानी हो गई है और जमाना बुरा है। कहीं कोई बात हो जाय, तो मुँह में कालिख लग जाए। यह बड़ा अच्छा औसर है। लड़की का ब्याह भी हो जायगा और तुम्हारे खेत भी बच जाएँगे। सारे खरच-बरच से बचे जाते हो।'

रामसेवक होरी से दो ही चार साल छोटा था। ऐसे आदमी से रूपा के ब्याह करने का प्रस्ताव ही अपमानजनक था। कहाँ फूल-सी रूपा और कहाँ वह बूढ़ा ठूँठ! जीवन में होरी ने बड़ी-बड़ी चोट सही थीं, मगर यह चोट सबसे गहरी थी। आज उसके ऐेसे दिन आ गए हैं कि उससे लड़की बेचने की बात कही जाती है और उसमें इनकार करने का साहस नहीं है। ग्लानि से उसका सिर झुक गया।

दातादीन ने एक मिनट के बाद पूछा - तो क्या कहते हो?

होरी ने साफ जवाब न दिया। बोला - सोच कर कहूँगा।

'इसमें सोचने की क्या बात है?'

'धनिया से भी तो पूछ लूँ।'

'तुम राजी हो कि नहीं?'

'जरा सोच लेने दो महाराज! आज तक कुल में कभी ऐसा नहीं हुआ। उसकी मरजाद भी तो रखना है।'

'पाँच-छ: दिन के अंदर मुझे जवाब दे देना। ऐसा न हो, तुम सोचते ही रहो और बेदखली आ जाए।'

दातादीन चले गए। होरी की ओर से उन्हें कोई अंदेशा न था। अंदेशा था धनिया की ओर से। उसकी नाक बड़ी लंबी है। चाहे मिट जाय, मरजाद न छोड़गी। मगर होरी हाँ कर ले तो वह रो-धो कर मान ही जायगी। खेतों के निकलने में भी तो मरजाद बिगड़ती है।

धनिया ने आ कर पूछा - पंडित क्यों आए थे?

'कुछ नहीं, यही बेदखली की बातचीत थी।'

'आँसू पोंछने आए होंगे। यह तो न होगा कि सौ रुपए उधार दे दें।'

'माँगने का मुँह भी तो नहीं।'

'तो यहाँ आते ही क्यों हैं?'

'रुपिया की सगाई की बात भी थी।'

'किससे?'

'रामसेवक को जानती है? उन्हीं से।'

'मैंने उन्हें कब देखा, हाँ नाम बहुत दिन से सुनती हूँ। वह तो बूढ़ा होगा।'

'बूढ़ा नहीं है। हाँ अधेड़ है।'

'तुमने पंडित को फटकारा नहीं। मुझसे कहते तो ऐसा जवाब देती कि याद करते।'

'फटकारा नहीं, लेकिन इनकार कर दिया। कहते थे, ब्याह भी बिना खरच-बरच के हो जायगा और खेत भी बच जाएँगे।'

'साफ-साफ क्यों नहीं बोलते कि लड़की बेचने को कहते थे। कैसे इस बूढ़े का हियाव पड़ा?'

लेकिन होरी इस प्रश्न पर जितना ही विचार करता, उतना ही उसका दुराग्रह कम होता जाता था। कुल-मर्यादा की लाज उसे कम न थी, लेकिन जिसे असाध्य रोग ने ग्रस लिया हो, वह खाद्य-अखाद्य की परवाह कब करता है? दातादीन के सामने होरी ने कुछ ऐसा भाव प्रकट किया था, जिसे स्वीकृति नहीं कहा जा सकता, मगर भीतर से वह पिघल गया था। उम्र की ऐसी कोई बात नहीं। मरना-जीना तकदीर के हाथ है। बूढ़े बैठे रहते हैं, जवान चले जाते हैं। रूपा के भाग्य में सुख लिखा है, तो वहाँ भी सुख उठाएगी, दु:ख लिखा है, तो कहीं भी सुख नहीं पा सकती। और लड़की बेचने की तो कोई बात ही नहीं। होरी उससे जो कुछ लेगा, उधार लेगा और हाथ में रुपए आते ही चुका देगा। इसमें शर्म या अपमान की कोई बात ही नहीं है। बेशक, उसमें समाई होती, तो रूपा का ब्याह किसी जवान लड़के से और अच्छे कुल में करता, दहेज भी देता, बरात के खिलाने-पिलाने में भी खूब दिल खोल कर खर्च करता, मगर जब ईश्वर ने उसे इस लायक नहीं बनाया, तो कुश-कन्या के सिवा और वह क्या कर सकता है? लोग हँसेंगे, लेकिन जो लोग खाली हँसते हैं, और कोई मदद नहीं करते, उनकी हँसी की वह क्यों परवा करे। मुश्किल यही है कि धनिया न राजी होगी। गधी तो है ही। वही पुरानी लाज ढोए जायगी। यह कुल-प्रतिष्ठा के पालने का समय नहीं, अपनी जान बचाने का अवसर है। ऐसी ही बड़ी लाज वाली है, तो लाए, पाँच सौ निकाले। कहाँ धरे हैं?

 

 

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