मेहता ने एक झटके से हाथ छुड़ा लिया और आगे बढ़े। मालती सजल नेत्र हो कर बोली - मैं कहती हूँ, मत जाओ। नहीं मैं इसी चट्टान पर सिर पटक दूँगी। मेहता ने तेजी से कदम बढ़ाए। मालती उन्हें देखती रही। जब वह बीस कदम निकल गए, तो झुँझला कर उठी और उनके पीछे दौड़ी। अकेले विश्राम करने में कोई आनंद न था। समीप आ कर बोली- मैं तुम्हें इतना पशु न जानती थी। 'मैं जो हिरन मारूँगा, उसकी खाल तुम्हें भेंट करूँगा।' 'खाल जाय भाड़ में। मैं अब तुमसे बात न करूँगी। 'कहीं हम लोगों के हाथ कुछ न लगा और दूसरों ने अच्छे शिकार मारे तो मुझे बड़ी झेंप होगी।' एक चौड़ा नाला मुँह फैलाए बीच में खड़ा था। बीच की चट्टानें उसके दाँतों-सी लगती थीं। धार में इतना वेग था कि लहरें उछली पड़ती थीं। सूर्य मध्याह्न आ पहुँचा था और उसकी प्यासी किरणें जल में क्रीड़ा कर रही थीं। मालती ने प्रसन्न हो कर कहा - अब तो लौटना पड़ा। 'क्यों उस पार चलेंगे। यहीं तो शिकार मिलेंगे।' 'धारा में कितना वेग है। मैं तो बह जाऊँगी।' 'अच्छी बात है। तुम यहीं बैठो, मैं जाता हूँ।' 'हाँ, आप जाइए। मुझे अपने जान से बैर नहीं है।' मेहता ने पानी में कदम रखा और पाँव साधते हुए चले। ज्यों-ज्यों आगे जाते थे, पानी गहरा होता जाता था। यहाँ तक कि छाती तक आ गया। मालती अधीर हो उठी। शंका से मन चंचल हो उठा। ऐसी विकलता तो उसे कभी न होती थी। ऊँचे स्वर में बोली - पानी गहरा है। ठहर जाओ, मैं भी आती हूँ। 'नहीं-नहीं, तुम फिसल जाओगी। धार तेज है।' 'कोई हरज नहीं, मैं आ रही हूँ। आगे न बढ़ना, खबरदार।' मालती साड़ी ऊपर चढ़ा कर नाले में पैठी। मगर दस हाथ आते-आते पानी उसकी कमर तक आ गया। मेहता घबड़ाए। दोनों हाथ से उसे लौट जाने को कहते हुए बोले - तुम यहाँ मत आओ मालती! यहाँ तुम्हारी गर्दन तक पानी है। मालती ने एक कदम और आगे बढ़ कर कहा - होने दो। तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं मर जाऊँ तो तुम्हारे पास ही मरूँगी। मालती पेट तक पानी में थी। धार इतनी तेज थी कि मालूम होता था, कदम उखड़ा। मेहता लौट पड़े और मालती को एक हाथ से पकड़ लिया। मालती ने नशीली आँखों में रोष भर कर कहा - मैंने तुम्हारे-जैसा बेदर्द आदमी कभी न देखा था। बिलकुल पत्थर हो। खैर, आज सता लो, जितना सताते बने, मैं भी कभी समझूँगी। मालती के पाँव उखड़ते हुए मालूम हुए। वह बंदूक सँभालती हुई उनसे चिमट गई। मेहता ने आश्वासन देते हुए कहा - तुम यहाँ खड़ी नहीं रह सकती। मैं तुम्हें अपने कंधों पर बिठाए लेता हूँ। मालती ने भृकुटी टेढ़ी करके कहा - तो उस पार जाना क्या इतना जरूरी है?
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