मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

चौथा अध्याय- जवानी की मौत

पेज- 17

समय हवा की तरह उड़ता चला जाता है। एक महीना गुजर गया। जाड़े का कूँच हुआ और गर्मी की लैनडोरी होली आ पहुँची। इस बीच में अमृतराय ने दो-तीन जलसे किये और यद्यपि सभासद दस से ज्यादा कभी न हुए मगर उन्होंने हियाव न छोड़ा। उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली थी कि चाहे कोई आवे या न आवे, मगर नियत समय पर जलसा जरुर किया करुगॉँ। इसके उपरान्त उन्होंने देहातों में जा-जाकर सरल-सरल भाषाओं में व्याख्यान देना शुरु किया और समाचार पत्रों में सामाजिक सुधार पर अच्छे-अच्छे लेख भी लिखे। इनकों तो इसके सिवाय कोई काम न था। उधर बेचारी प्रेमा का हाल बहुत बेहाल हो रहा था। जिस दिन उसे-उनकी आखिरी चिट्टी पहुँची थी उसी दिन से उसकी रोगियों की-सी दशा हो रही थी। हर घड़ी रोने से काम था। बेचारी पूर्ण सिरहाने बैठे समझाया करती। मगर प्रेमा को जरा भी चैन न आता। वह बहुधा पड़े-पड़े अमृतराय की तस्वीर को घण्टों चुपचाप देखा करती। कभी-कभी जब बहुत व्याकुल हो जाती तो उसके जी मे आता कि मौ भी उनकी तस्वीर की वही गत करुँ जो उन्होंने मेरी तस्वीर की की है। मगर फिर तुरन्त यह ख्याल पलट खा जाता। वह उस तसवी को ऑंखों से लेती, उसको चूमती और उसे छाती से चिपका लेती। रात में अकेले चारपाई पर पड़े-पड़े आप ही आप प्रेम और मुहब्ब्त की बातें किया करती। अमृराय के कुल प्रेम-पत्रों को उसने रंगीन कागज पर, मोटे अक्षरों, में नकल कर लिया था। जब जी बहुत बेचैन होता तो पूर्ण से उन्हें पढ़वाकर सुनती और रोती। भावज के पास तो वह पहले भी बहुत कम बैठती थी, मगर अब मॉँ से भी कुछ खिंची रहती। क्योंकि वह बेटी की दशा देख-देख कुढ़ती और अमृतराय को इसका करण समझकर कोसती। प्रेमा से यह कठोर वचन न सुने जाते। वह खुद अमृतराय का जिक्र बहुत कम करती। हॉँ, जब पूर्णा या कोई और दूसरी सहेली उनकी बात चलाती तो उसको खूब कान लगाकर सुनाती। प्रेमा एक ही मास में गलकर कॉँटा हो गयी। हाय अब उसको अपने जीवन की कोई आशा न थी। घर के लोग उसकी दवा-दारू में रुपया ठीकरी की तरह फूक रहे थे मगर उसको कुछ फयदा न होता। कई बार लाला बदरीप्रसाद जी के जी में यह बात आई कि इसे अमृतराय ही से ब्याह दूँ। मगर फिर भाई-बहन के डर से हियाव न पड़ता। प्रेमा के साथ बेचारी पूर्णा भी रोगिणी बनी हुई थी।

 

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