उधर हाल का सुलिए। पंडित जी के चले आने के बाद पूर्णा ने थालियॉँ परसीं। एक बर्तन में गुलाल घोली, उसमें मिलाया। पंडित जी के लिए सन्दूक से नये कपड़े निकाले। उनकी आसतीनों में चुन्नटें डाली। टोपी सादी थी, उसमें सितारें टॉँके। आज माथे पर केसर का टीका लगाना शुभ समझा जाता है। उसने अपने कोमल हाथों से केसर और चन्दन रगड़ा, पान लगाये, मेवे सरौते से कतर-कतर कटोरा में रक्खे। रात ही को प्रेमा के बग़ीचे से सुन्दर कलियॉँ लेती आयी थी और उनको तर कपड़े में लपेट कर रख दिया था। इस समय वह खूब खिल गयी थीं। उनको तागे में गुँथकर सुन्दर हार बनाया और यह सब प्रबन्ध करके अपने प्यारे पति की राह देखने लगी। अब पंडित जी को नहाकर आ जाना चाहिए था। मगर नहीं, अभी कुछ देर नहीं हुई। आते ही होगें, यही सोचकर पूर्णा ने दस मिनट और उनका रास्ता देखा। अब कुछ-कुछ चिंता होने लगी। क्या करने लगे? धूप कड़ी हो रही है। लौटने पर नहाया-बेनहाया एक हो जाएगा। कदाचित यार दोस्तों से बातों करने लगे। नहीं-नहीं मैं उनकों खूब जानती हूँ। नदी नहाने जाते हैं तो तैरने की सुझती है। आज भी तैर रहे होंगे। यह सोचकर उसने आधा घंटे और राह देखी। मगर जब वह अब भी न आये तब तो वह बैचैन होने लगी। महरी से कहा—‘बिल्लों जरा लपक तो जावा, देखो क्या करने लगे। बिल्लों बहुत अच्छे स्वाभव की बुढ़िया थी। इसी घर की चाकरी करते-करते उसके बाल पक गये थे। यह इन दोनों प्राणियों को अपने लड़कों के समान समझती थी। वह तुरंत लपकी हुई गंगा जी की तरफ चली। वहॉँ जाकर क्या देखती है कि किनारे पर दो-तीन मल्लाह जमा हैं। पंडित जी की धोती, तौलिया, साबुन कमंडल सब किनारे पर धरे हुए हैं। यह देखते ही उसके पैर मन-मन भर के हो गए। दिल धड़-धड़ करने लगा और कलेजा मुँह को आने लगा। या नारायण यह क्या ग़जब हो गया। बदहवास घबरायी हुई नज़दीक पहूँची तो एक मल्लाह ने कहा—काहे बिल्लों, तुम्हारे पंडित नहाय आवा रहेन।
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