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मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
सातवां अध्याय - आज से कभी मन्दिर न जाऊँगी
पेज- 45
पंडा—(घूरका) यह तुम्हारे साथ कौन है?
राम०—(ऑंखे मटकाकर) कोई होंगी तुमसे मतलब। तुम कौन होते हो पूछने वाले?
पंडा—जरा नाम सुन के कान खुश कर लें।
राम०—यह मेरी सखी हैं। इनका नाम पूर्णा है।
पंडा—(हँसकर) ओहो हो। कैसा अच्छा नाम है। है भी तो पूर्ण चंद्रमा के समान। धन्य भाग्य है कि ऐसे जजमान का दर्शन हुआ।
इतने में एक दूसरा पंडा लाल लाल ऑंखे निकाले, कंधे पर लठ रखे, नशे में चूर, झूमता-झामता आ पहुँचा और इन दोनो ललनाओं की ओर घूर कर बोला, ‘अरे रामभरोसे, आज तेरे चंदन का रंग बहुत चोखा है।
रामभरोसे—तेरी ऑंखे काहे को फूटे है। प्रेम की बूटी डाली है जब जा के ऐसा चोखा रंग भया।
पंडा—तेरे भाग्य को धन्य हैं यह रक्त चंदन (रामकली की तरफ देखकर) तो तूने पहले ही रगड़ा रक्खा था। परंतु इस मलयागिर (पूर्णा की तरफ इशारा करके) के सामने तो उसकी शोभा ही जाती रही।
पूर्णा तो यह नोक-झोंक समझ-समझ कर झेंपी जाती थी। मगर रामकली कब चूकनेवाली थे। हाथ मटका कर बोली—ऐसे करमठँढ़ियों को थोड़े ही मलयागिर मिला करता है।
रामभरोसे—(पंडा से) अरे बौरे, तू इन बातों का मर्म क्या जाने। दोनो ही अपने-अपने गुण मे चोखे है। एक में सुगंध है तो दूसरे में रंग है।
पूर्णा मन में बहुत लज्जित थी कि इसके साथ कहॉँ फँस गयी। अब तक वो नहा-धोके घर पहुँची होती। रामकली से बोली—बहिन, नहाना हो तो नहाओ, मुझको देर होती है। अगर तुमको देर हो तो मैं अकेले जाऊँ।
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