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मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
आठवां अध्याय- कुछ और बातचीत
पेज- 52
अमृतराय—तुमने ले लिया। मेरी मेहनत ठिकाने लगी, और मै कुछ नहीं जानता।
इतने में बिल्लो पहुँची और कमरे में बाबू साहब को देखते ही निहाल हो गयी। जब चौकी पर दृष्ठि पड़ी और इन चीजों को देखा तो बोली—क्या इनके लिए आप बाजार गये थे। बूढा कहर रो रहा था कि मेरी दस्तूरी मारी गयी।
अमृतराय—(दबी जबान से) वह सब कहार मेरे नौकर हैं। मेरे लिए बाजार से चीजें लाते है। तुम्हारे सर्कार का मै चाकर हूँ।
बिल्लो यह सुनकर मुसकराती हुई भीतर चली गई। पूर्णा के कान में भी भनक पड़ गयी थी। बोली—उलटी बात न कहिए। मैं तो खुद आपकी चेरियो कीचेरी हूँ। इसके बाद इधर-उधर की कुछ बातें हुई। माघ-पूस के दिन थे, सरदी खूब पड़ रही थी। बाबू साहब देर तक न बैठ सके और आठ बजते बजते वह अपने घर को सिधारे। उनके चले जाने के बाद पूर्णा ने जो संदूक खोला तो दंग रह गयी। स्त्रियो के सिंगार की सब सामग्रियॉँ मौजूद थीं और जो चीज थी सुंदर और उत्तम थी। आइना, कंघी, सुगंधित तेलों की शीशियॉँ, भॉँति’भाति के इत्र, हाथों के कंगन, गले का चंद्रहार, जड़ाऊ, एक रूपहला पानदान, लिखने पढने के सामान से भरी एक संदूकची, किस्से-कहानी की कितबों, इनके अतिरिक्त और भी बहुत-सी चीजें बड़ी उत्तम रीति से सजाकर धरी हुइ थी। कपड़ो का बेठन खोला तो अच्छी से अच्छी सारिया दिखायी दी। शर्बती, धानी, गुलाबी, उन पर रेशम के बेल बूट बने हुए। चादरे भारी सुनहरे काम की। बिल्लो इन चीजो को देख-देख फूली न समाती थी। बोली—बहू। यह सब चीजें तुम पहनोगी तो रानी हो जाओगी—रानी।
पूर्णा—(गिरी हुई आवाज में) कुछ भंग खा गयी हो क्या बिल्लों। मै यह चीजें पहनूँगी तो जीती बचूँगी। चौबाइन और सेठानी ताने दे देकर जान ले लेगी।
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