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मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा
आठवां अध्याय- कुछ और बातचीत
पेज- 55
बिल्लो—मैं जाकर कहे देती हूँ कि वह आपको बुलाती है।
पूर्णा को कोई बहाना न मिला। वह उठी और शर्म से सर झुकाये, घूँघट निकाले, बदन को चुराती, लजाती, बल खाती, एक गिलौरीदान लिये दरवाजे परआकर खड़ी हो गइ अमृतराय ने देखा तो अचम्भे में आ गये। ऑंखे चौधिया गयीं। एक मिनट तक तो वह इस तरह ताकते रहे जैसे कोई लड़के खिलौने को देखे। इसके बाद मुस्कराकर बोले—ईश्वर, तू धन्य है।
पूर्णा—(लजाती हुई) आप कुशल से थे?
अमृत०—(तिर्छी निगाहों से देखकर) अब तक तो कुशल से था, मगर अब खैरियत नहीं नजर आती।
पूर्णा समझ गयी, अमृतराय की रंगीली बातों का आनंद लेते लेते वह बोलने मे निपुण हो गयी थी। बोली—अपने किये का क्या इलाज?
अमृत०—क्या किसी को अपनी जान से बैर है।
पूर्णा ने लजाकर मुँह फेर लिया। बाबू साहब हँसने लगे और पूर्णा की तरफ प्यार की निगाहों से देखा। उसकी रसिक बातें उनको बहुत भाइ, कुछ काल तक और ऐसी ही रस भरी बाते होती रहीं। पूर्णा को इस बात की सुधि भी न थी कि मेरा इस तरह बोलना चालना मेरे लिए उचित नहीं है। उसको इस वक्त न पंडाइन का डर था, न पडोसियों का भय। बातों ही बातों में उसने मुसकराकर अमृतराय से पूछा—आपको आजकल प्रेमा का कुछ समाचार मिला है?
अमृत०—नहीं पूर्णा, मुझे इधर उनकी कुछ खबर नहीं मिली। हॉँ, इतना जानता हूँ कि बाबू दाननाथ से ब्याह की बातचीत हो रही है।
पूर्णा—बाबू दाननाथ तो आपके मित्र है?
अमृत०—मित्र भी है और प्रेमा के योगय भी है।
पूर्णा—यह तो मै न मानूगी। उनका जोड़ है तो आप ही से है। हॉ, आपका ब्याह भीतो कहीं ठहरा था?
अमृत०—हॉँ, कुछ बातचीत हो रही थी।
पूर्णा—कब तक होने की आशा है?
अमृत०—देखे अब कब भाग्य जागता है। मैं तो बहुत जल्दी मचा रहा हूं।
पूर्णा—तो क्या उधर ही से खिंचाव है। आश्चर्य की बात है।
अमृत०—नहीं पूर्णा, मै जरा भाग्यहीन हूँ। अभी तक सिवाय बातचीत होने के और कोई बात तय नहीं हुई।
पूर्णा—(मुसकराकर) मुझे अवश्य नवता दीजिएगा।
अमृत०—तुम्हारे ही हाथों में तो सब कु है। अगर तुम चाहो तो मेरे सर सेहरा बहुत जल्द बँध जाए।
पूर्णा भौचक होकर अमृतराय की ओर देखने लगी। उनका आशय अब की बार भी वह न समझी। बोली—मेरी तरफ से आप निश्चित रहिए। मुझसे जहॉँ तक हो सकेगा उठा न रखूँगी।
अमृत०—इन बातों को याद रखना, पूर्णा, ऐसा न हो भूल जाओ तो मेरे सब अरमान मिटटी में मिल जाऍं।
यह कहकर बाबू अमृतराय उठे और चलते समय पूर्णा की ओर देखा। उसकी ऑंखे डबडबायी हुई थी, मानो विनय कर रही थी कि जरा देर और बैठिए। मगर अमृतराय को कोइ जरूरी काम था धीरे से उठ खड़े हुए और बोले—जी तो नही चाहता कि यहॉँ से जाऊँ। मगर आज कुछ काम ही ऐसा आ पड़ा। यह कहा और चल दिये। पूर्णा खड़ी रोती रह गई।
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