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बड़े भाई साहब - प्रेमचंद की हिन्दी कहानी

बड़े भाई साहब - प्रेमचंद की हिन्दी कहानी

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इस दरजे में अव्‍वल आ गए हो, वो जमीन पर पांव नहीं रखते इसलिए मेरा कहना मानिए। लाख फेल हो गया हूँ, लेकिन तुमसे बड़ा हूं, संसार का मुझे तुमसे ज्‍यादा अनुभव है। जो कुछ कहता हूं, उसे ‍ गिरह बांधिए नही पछताएँगे।
स्‍कूल का समय निकट था, नहीं  इश्‍वर जाने, यह उपदेश-माला कब समाप्‍त होती। भोजन आज मुझे निस्‍स्‍वाद-सा लग रहा था। जब पास होने पर यह तिरस्‍कार हो रहा है, तो फेल हो जाने पर तो शायद प्राण ही ले लिए जाएं। भाई साहब ने अपने दरजे की पढाई का जो भयंकर चित्र खीचा था; उसने मुझे भयभीत कर दिया। कैसे स्‍कूल छोडकर घर नही भागा, यही ताज्‍जुब है; लेकिन इतने तिरस्‍कार पर भी पुस्‍तकों में मेरी अरूचि ज्‍यो-कि-त्‍यों बनी रही। खेल-कूद का कोई अवसर हाथ से न जाने देता। पढ़ता भी था, मगर बहुत कम। बस, इतना कि रोज का टास्‍क पूरा हो जाए और दरजे में जलील  न होना पडें। अपने ऊपर जो विश्‍वास पैदा हुआ था, वह फिर लुप्‍त हो गया और ‍‍फिर चोरो का-सा जीवन कटने लगा।

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फिर सालाना इम्‍तहान हुआ, और कुछ ऐसा संयोग हुआ कि मै ‍‍‍‍‍‍िफ‍र पास हुआ और भाई साहब फिर ‍फेल हो गए। मैंने बहुत मेहनत न की पर न जाने, कैसे दरजे में अव्‍वल आ गया। मुझे खुद अचरज हुआ। भाई साहब ने प्राणांतक परिश्रम किया था। कोर्स का एक-एक शब्‍द चाट गये थे; दस बजे रात तक इधर, चार बजे भोर से उभर, छ: से साढे नौ तक स्‍कूल जाने के पहले। मुद्रा कांतिहीन हो गई थी, मगर बेचारे फेल हो गए। मुझे उन पर दया आ‍ती‍‍ थी। नतीजा सुनाया गया, तो वह रो पड़े और मैं भी रोने लगा। अपने पास होने वाली खुशी आधी हो गई। मैं भी फेल हो गया होता, तो भाई साहब को इतना दु:ख न होता, लेकिन विधि की बात कौन टाले?
मेरे और भाई साहब के बीच में अब केवल एक दरजे का अन्‍तर  और रह गया। मेरे मन में एक कुटिल भावना उदय हुई कि कही भाई साहब एक साल और फेल हो जाएँ, तो मै उनके बराबर हो जाऊं, ‍िफर वह किस आधार पर मेरी फजीहत कर सकेगे, लेकिन मैंने इस कमीने विचार को दिल‍ से बलपूर्वक निकाल डाला। आखिर वह मुझे मेरे हित के विचार से ही तो डांटते हैं। मुझे उस वक्‍त अप्रिय लगता है अवश्‍य, मगर यह शायद उनके उपदेशों का ही असर हो कि मैं दनानद पास होता जाता हूं और इतने अच्‍छे नम्‍बरों से।

अबकी भाई साहब बहुत-कुछ नर्म पड़ गए थे। कई बार मुझे डांटने का अवसर पाकर भी उन्‍होंने धीरज से काम लिया। शायद अब वह खुद  समझने लगे थे कि मुझे डांटने का अधिकार उन्‍हे नही रहा; या रहा तो बहुत कम। मेरी स्‍वच्‍छंदता भी बढी। मैं उनकि सहिष्‍णुता का अनुचित लाभ उठाने लगा। मुझे कुछ ऐसी धारणा हुई कि मैं तो पास ही हो जाऊंगा, पढू या न पढूं मेरी तकदीर बलवान् है,  इसलिए भाई साहब के डर से जो थोडा-बहुत बढ लिया करता था, वह भी बंद हुआ। मुझे कनकौए उडाने का नया शौक पैदा हो गया था और अब सारा समय पतंगबाजी ही की भेंट होता था, ‍िफर भी मैं भाई साहब  का अदब करता था, और उनकी नजर बचाकर कनकौए उड़ाता था। मांझा देना, कन्‍ने बांधना, पतंग टूर्नामेंट की तैयारियां आदि समस्‍याएँ अब गुप्‍त रूप से हल की जाती थीं। भाई साहब को यह संदेह न करने देना चाहता था कि उनका सम्‍मान और लिहाज मेरी नजरो से कम हो गया है।
एक दिन संध्‍या समय होस्‍टल से दूर मै एक कनकौआ लूटने बंतहाशा दौडा जा रहा था। आंखे आसमान की ओर थीं और मन उस आकाशगामी पथिक की ओर, जो मंद गति से झूमता पतन की ओर चला जा रहा था, मानो कोई आत्‍मा स्‍वर्ग से निकलकर विरक्‍त मन से नए संस्‍कार ग्रहण करने जा रही हो। बालकों की एक पूरी सेना लग्‍गे और झड़दार बांस लिये उनका स्‍वागत करने को दौड़ी आ रही थी।  किसी को अपने आगे-पीछे  की खबर न थी। सभी मानो उस पतंग के साथ ही आकाश में उड़ रहे थे, जहॉं सब कुछ समतल है, न मोटरकारे है, न ट्राम, न गाडियाँ।
सहसा भाई साहब से मेरी मुठभेड हो गई, जो शायद  बाजार से लौट रहे थे। उन्‍होने वही मेरा हाथ पकड लिया और उग्रभाव से बोले-इन बाजारी लौंडो के साथ धेले के कनकौए के लिए दौड़ते तुम्‍हें शर्म नही आती? तुम्‍हें  इसका भी कुछ लिहाज नहीं कि अब नीची जमात में नहीं हो, बल्कि आठवीं जमात में आ गये हो और मुझसे केवल एक दरजा नीचे हो। आखिर आदमी को कुछ तो अपनी पोजीशन का ख्याल करना चाहिए। एक जमाना था कि कि लोग आठवां दरजा पास करके नायब तहसीलदार हो जाते थे। मैं कितने  ही मिडलचियों को जानता हूं, जो आज अव्‍वल दरजे के डिप्‍टी मजिस्‍ट्रेट या सुपरिटेंडेंट है। कितने ही आठवी जमाअत वाले हमारे लीडर और समाचार-पत्रो के सम्‍पादक है। बडें-बडें विद्धान उनकी मातहती में काम करते है और तुम उसी आठवें दरजे में आकर बाजारी लौंडों के साथ कनकौए के लिए दौड़ रहे हो। मुझे तुम्‍हारी इस कमअकली पर दु:ख होता है। तुम जहीन हो,  इसमें शक नही: लेकिन वह जेहन किस काम का, जो हमारे आत्‍मगौरव की हत्‍या कर डाले? तुम अपने दिन में समझते होगे, मैं भाई  साहब से महज  एक दर्जा नीचे हूं और अब उन्‍हे मुझको कुछ कहने का हक नही है; लेकिन यह तुम्‍हारी गलती है। मैं तुमसे पांच साल बडा हूं और चाहे आज तुम मेरी ही जमाअत में आ जाओ–और परीक्षकों का यही हाल है, तो निस्‍संदेह अगले साल तुम मेरे समकक्ष हो जाओगे और शायद एक साल बाद तुम मुझसे आगे निकल जाओ-लेकिन मुझमें और जो पांच साल का अन्‍तर है, उसे तुम क्‍या, खुदा भी नही मिटा सकता। मैं तुमसे पांच साल बडा हूं और हमेशा रहूंगा। मुझे दुनिया का और जिन्‍दगी का जो तजरबा है, तुम उसकी बराबरी नहीं कर सकते, चाहे तुम एम. ए., डी. फिल. और डी. लिट. ही क्‍यो न हो जाओ। समझ  किताबें पढने से नहीं आती है। हमारी अम्‍मा ने कोई  दरजा पास नही किया, और दादा भी शायद पांचवी जमाअत के आगे नही गये, लेकिन हम दोनो चाहे सारी दुनिया की विधा पढ ले, अम्‍मा और दादा को हमें समझाने और सुधारने का अधिकार हमेशा रहेगा। केवल इसलिए नही कि वे हमारे जन्‍मदाता है, ब‍ल्कि इसलिए कि उन्‍हे दुनिया का हमसे ज्‍यादा जतरबा है और रहेगा। अमेरिका में किस जरह कि राज्‍य-व्‍यवस्‍था है और आठवे हेनरी ने कितने विवाह किये और आकाश में कितने नक्षत्र है, यह बाते चाहे उन्‍हे न मालूम हो, लेकिन हजारों ऐसी आते है, जिनका ज्ञान  उन्‍हे हमसे और तुमसे ज्‍यादा है।
दैव न करें, आज मैं बीमार हो आऊं, तो तुम्‍हारे हाथ-पांव फूल जाएगें। दादा को तार देने के सिवा तुम्‍हे और कुछ न सूझेंगा; लेकिन तुम्‍हारी जगह पर दादा हो, तो किसी को तार न दें, न घबराएं, न बदहवास हों। पहले खुद मरज पहचानकर इलाज करेंगे, उसमें सफल न हुए, तो किसी डांक्‍टर को बुलायेगें। बीमारी तो खैर बडी चीज है। हम-तुम तो इतना भी नही जानते कि महीने-भर का महीने-भर कैसे चले। जो कुछ दादा भेजते है, उसे हम बीस-बाईस तक र्खच कर डालते है और पैसे-पैसे को मोहताज हो जाते है। नाश्‍ता बंद हो जाता है, धोबी और नाई से मुंह चुराने लगते है; लेकिन जितना आज हम और तुम र्खच कर रहे है, उसके आधे में दादा ने अपनी उम्र का बडा भाग इज्‍जत और नेकनामी के साथ निभाया है और एक कुटुम्‍ब का पालन किया है, जिसमे सब मिलाकर नौ आदमी थे। अपने हेडमास्‍टर साहब ही को देखो। एम. ए. हैं कि नही, और यहा के एम. ए.  नही, आक्‍यफोर्ड के। एक हजार रूपये पाते है, लेकिन उनके घर इंतजाम  कौन करता है? उनकी बूढी मां। हेडमास्‍टर साहब की डिग्री यहां बेकार हो गई। पहले  खुद घर का इंतजाम करते थे। खर्च पूरा न पड़ता था। करजदार रहते थे। जब से उनकी माताजी ने प्रबंध अपने हाथ मे ले लिया है, जैसे घर में लक्ष्‍मी आ गई है। तो भाईजान, यह जरूर दिल से निकाल डालो कि तुम मेरे समीप आ गये हो और अब स्‍वतंत्र हो। मेरे देखते तुम बेराह नही चल पाओगे। अगर तुम यों न मानोगे, तो मैं (थप्‍पड दिखाकर) इसका प्रयोग भी कर सकता हूं। मैं जानता हूं, तुम्‍हें मेरी बातें जहर लग रही है।
मैं उनकी इस नई युक्‍ति से नतमस्‍तक हो गया। मुझे आज सचमुच अपनी लघुता का अनुभव हुआ और भाई साहब के प्रति मेरे तम में श्रद्धा उत्‍पन्‍न हुईं। मैंने सजल आंखों से कहा-हरगिज नही। आप जो कुछ फरमा रहे है, वह बिलकुल सच है और आपको कहने का अधिकार है।
भाई साहब ने मुझे गले लगा लिया और बाल-कनकाए उड़ान को मना नहीं करता। मेरा जी भी ललचाता है, लेकिन क्या करूँ, खुद बेराह चलूं तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूँ? यह कर्त्तव्य भी तो मेरे सिर पर है।
संयोग से उसी वक्त एक कटा हुआ कनकौआ हमारे ऊपर से गुजरा। उसकी डोर लटक रही थी। लड़कों का एक गोल पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था। भाई साहब लंबे हैं ही, उछलकर उसकी डोर पकड़ ली और बेतहाशा होटल की तरफ दौड़े। मैं पीछे-पीछे दौड़ रहा था।

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