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धिक्कार
पतित, कि मेरे मर जाने से पथ्वी का भार हल्का हो जाएगा ? क्या कहा था, तू अपने मॉ-बाप की बेटी है तो फिर मुंह मत दिखाना । न दिखाऊंगी, जिस मुंह पर ऐसी कालिमा लगी हुई है, उसे किसी को दिखाने की इच्छा भी नहीं है ।
गाड़ी अंधकार को चीरती चली जा रही थी । मानी ने अपना टंक खोला और अपने आभषण निकालकर उसमें रख दिए । फिर इंद्रनाथ का चित्र निकालकर उसे देर तक देखती रही । उसकी आखों से गर्व की एक झलक-सी दिखाई दी । उसने तसवीर रख दी और आप-ही-आप बोली-नहीं-नहीं, मैं तुम्हारे जीवने को कलंकित नहीं कर सकती । तुम देवतुल्य हो, तुमन मुझ पर दया की है । मैं अपने पूर्व संस्कारों का प्रायश्चित कर रही थी । तुमने मुझे उठाकर हदय से लगा लिया; लेकिन मैं तुम्हें कलंकित न करूंगी । तुमने मुझसे प्रेम है । तुम मेरे लिए अनादर, अपमान, निन्दा सब सह लोगे; पर मैं तुम्हारे जीवन का भार न बनूंगी ।
गाड़ी अंधकार को चीरती चली जा रही थी । मानो आकाश की ओर इतनी देर तक देखती रही कि सारे तारे अदय हो गए और उस अन्धकार में उसे अपनी माता का स्वरूप दिखाई दिया-ऐसा प्रत्यक्ष कि उसने चौंककर आंखें बन्द कर लीं ।
10
न जाने कितनी रात गुजर चुकी थी । दरवाजा खुलने की आहट से माता जी की आंखें खुल गईं । गाड़ी तेजी से चलती जा रही थी; मगर बहू का पता न था वह आखें मलकर उठ बैठी और पुकारा-बहू । बहू । कोई जवाब न मिला।
उसका हदय धक-धक करने लगा । ऊपर के बर्थ पर नजर डाली, पेशाबखान में देखा, बेंचों के नीचे देखा, बहू कहीं न थी । तब वह द्वार पर आकर खड़ी हो गई । बहू का क्या हुआ, यह द्वार किसने खोला ? कोई गाड़ी में तो नहीं आया । उसका जी घबराने लगा । उसने किवाड़ बन्द कर दिया और जोर-जोर से रोने लगी । किससे पूछे ? डाकगाड़ी अब न जाने कितनी देर में रूकेगी । कहती थी, बहू, मरदानी गाड़ी में बैठें । मेरा कहना न माना । कहने लगी, अम्माजी, आपको सोने की तकलीफ होगी । यही आराम दे गई।
सहसा उसे खतरे की जंजीर याद आई । उसने जोर-जोर से कई बार जंजीर खींची । कई मिनट के बाद गाड़ी रूकी । गार्ड आया । पड़ोस के कमरे से दो-चार आदमी और भी आये । फिर लोगों ने सारा कमरा तलाश किया । किया नीचे तख्ते को ध्यान से देखा । रक्त का कोई चिन्ह न था । असबाब की जॉच की । बिस्तर, संदूक, संदुकची, बरतन सब मौजूद थे । ताले भी सबसे बंद थे । कोई चीज गायब न थी । अगर बाहर से कोई आदमी आता, तो चलती गाड़ी से जाता कहॉ ? एक स्त्री को लेकर गाड़ी से कूद असम्भव था । सब लोग इन लक्षणों से इसी नतीजे पर पहुचे कि मानी द्वार खोलकर बाहर झाकने लगी होगी और मुठिया हाथ से छूट जाने के कारण गिर पड़ी होगी । गार्ड भला आदमी था । उसने नीचे उतरकर एक मील तक सड़क के दोनों तरफ तलाश किया । मानी को कोई निशान न मिला । रात को इससे ज्यादा और क्या किया जा सकता था ? माताजी को कुछ लोग आग्रहपूर्वक एक मरदाने डब्बे में ले गए । यह निश्चय हुआ कि माताजी अगले स्टेशन पर उतर पड़े और सबेरे इधर-उधर दूर तक देख-भाल की जाए ।
विपत्ति में हम परमुखपेक्षी हो जाते हैं । माताजी कभी इसका मुंह देखती, कभी उसका । उसकी याचना से भरी हुई आंखें मानो सबसे कह रही थीं-कोई मेरी बच्ची को खोज क्यों नहीं लाता ?हाय, अभी तो बेचारी की चुंदरी भी नहीं मैली हुई । कैसे-कैसे साधों और अरमानों से भरी पति के पास जा रही थी । कोई उस दुष्ट वंशीधर से जाकर कहता क्यों नहीं-ले तेरी मनोभिलाषा पूरी हो गई- जो तू चाहता था, वह पूरा हो गया । क्या अब भी तेरी छाती नहीं जुडाती ।
वुद्धा बैठी रो रही थी और गाड़ी अंधकार को चीरती चली जाती थी ।
11
रविवार का दिन था । संध्या समय इंद्रनाथ दो-तीन मित्रों के साथ अपने घर की छत पर बैठा हुआ था । आपस में हास-परिहास हो रहा था । मानी का आगमन इस परिहास का विषय था ।
एक मित्र बोले-क्यों इंद्र, तुमने तो वैवाहिक जीवन का कुछ अनुभव किया है, हमें क्या सलाह देते हो ? बनाए कहीं घोसला, या यों ही डालियों पर बैठे-बैठे दिन काटें ? पत्र-पत्रिकाओं को देखकर तो यही मालूम होता है कि वैवाहिक जीवन और नरक में कुछ थोड़ा ही-सा अंतर है ।
इंद्रनाथ ने मुस्कराकर कहा-यह तो तकदीर का खेल है, भाई, सोलहों आना तकदीर का । अगर एक दशा में वैवाहिक जीवन नरकतुल्य है, तो दूसरी दशा में वर्ग में कम नहीं ।
दूसरे मित्र बोल-इतनी आजादी तो भला क्या रहेगी ?
इंद्रनाथ—इतनी क्या, इसका शतांश भी न रहेगी। अगर तुम रोज सिनेमा देखकर बारह बजे लौटना चाहते हो, नौ बजे सोकर उठना चाहते हो और दफ्तर से चार बजे लौटकर ताश खेलना चाहते हो, तो तुम्हें विवाह करने से कोई सुख न होगा। और जो हर महीने सूट बनवाते हो, तब शायद साल-भर भी न बनवा सको।
‘श्रीमतीजी, तो आज रात की गाड़ी से आ रही हैं?’
‘हॉँ, मेल से। मेरे साथ चलकर उन्हें रिसीव करोगे न?’
‘यह भी पूछने की बात है। अब घर कौन जाता है, मगर कल दावत खिलानी पड़ेगी।‘
सहमा तार के चपरासी ने आकर इंद्रनाथ के हाथ में तार का लिफाफा रख दिया।
इंद्रनाथ का चेहरा खिल उठा। झट तार खोलकर पढ़ने लगा। एक बार पढ़ते ही उसका हृदय धक हो गया, साँस रूक गई, सिर घूमने लगा। ऑंखों की रोशनी लुप्त हो गई, जैसे विश्व पर काला परदा पड़ गया हों उसने तार को मित्रों के सामने फेंक दिया ओर दोनों हाथों से मुँह ढॉँपकर फूट-फूटकर रोने लगा। दोनों मित्रों ने घबड़ाकर तार उठा लिया और उसे पढ़ते ही हतबुद्धि-से हो दीवार की ओर ताकने लगे। क्या सोच रहे थे ओर क्या हो गया।
तार में लिखा था—मानी गाड़ी से कूद पड़ी। उसकी लाश लालपुर से तीन मील पर पाई गई। में लालपुर में हूँ, तुरंत आओ।
एक मित्र ने कहा—किसी शत्रु ने झूठी खबर न भेज दी हो?
दूसरे मित्र ने बोले—हॉँ, कभी-कभी लोग ऐसी शरारतें करते हें।
इंद्रनाथ ने शून्य नेत्रों से उनकी ओर देखा, पर मुँह से कुछ बोले नहीं।
कई मिनट तीनों आदमी निर्वाक् निस्पंद बैठे रहे। एकाएक इंद्रनाथ खड़े हो गए और बोले—मैं इस गाड़ी से जाऊंगा।
बम्बई से नौ बजे को गाड़ी छू, टूटती थी। दोनों ने चटपट बिस्तर आदि बाँधकर तैयार कर दिया। एक ने बिस्तर उठाया, दूसरे ने ट्रंक। इंद्रनाथ ने चटपट कपड़े पहने और स्टेशन चले। निराशा आगे थी, आशा रोती हुई पीछे।
12
एक सप्ताह गुजर गया था। लाला वंशीधर दफ्तर से आकर द्वार पर बैठे ही थे कि इंद्रनाथ ने आकर प्रणाम किया। वंशीधर उसे देखकर चौंक पड़े, उसके अनपेक्षित आगमन पर नहीं, उसकी विकृत दशा पर, मानो तीतराग शोक सामने खड़ा हो, मानो कोई हृदय से निकली हुई आह मूर्तिमान् हो गई हों
वंशीधर ने पूछा—तुम तो बम्बई चले गए थे न?
इंद्रनाथ ने जवाब दिया—जी हॉँ, आज ही आया हूँ।
वंशीधर ने तीखे स्वर में कहा—गाकुल को तो तुम ले बीते! आये? तुमसे कहॉँ उसकी भेंट हुई? क्या बम्बई चला गया था?
‘जी नहीं, कल मैं गाड़ी से उतरा तो स्टेशन पर मिल गए।‘
‘तो जाकर लिवी लाओ न, जो किया अच्छा किया।‘
यह कहते हुए वह घर में दौड़े। एक क्षण में गोकुल की माता ने उसे उंदर बुलाया।
वह अंदर गया तो माता ने उसे सिर से पॉँव तक देखा—तुम बीमार थे क्या भैया?
इंद्रनाथ ने हाथ—मुँह धोते हुए काह—मैंने तो कहा था, चलो, लेकिन डर के मारे नहीं आते।
‘और था कहॉँ इतने दिन?’
‘कहते थे, देहातों में घूमता रहा।‘
‘तो क्या तुम अकेले बम्बई से आये हो?’
‘जी नहीं, अम्मॉँ भी आयी हैं।
गोकुल की माता ने कुछ सकुचाकर पूछा— मानी तो अच्छी तरह है?
इंद्रनाथ ने हँसकर कहा—जी हॉँ, अब वह बड़े सुख से हैं। संसार के बंधनों से छूट गई।
माता ने अविश्वास करके कहा—जी हॉँ, अब वह बड़े सुख से है। संसार के बंधनों से छूट गई।
माता ने अविश्वास करके कहा—चल, नटखट कँही का! बेचारी को कोस रहा है, मगर जल्दी बम्बई से लौट क्यों आये?
इंद्रनाथ ने मुस्काते हुए कहा—क्या करता! माताजी का तार बम्बई में मिला कि मानी ने गाड़ी से कूदकर प्राण दें दिए। वह लालपुर में पड़ी हुई थी, दौड़ा हुआ आया। वहीं दाह-क्रिया कीं आज घर चला आया। अब मेरा अपराध क्षमा कीजिए।
वह और कुछ न कह सका। ऑंसुओ के वेग ने गला बंद कर दियां जेब से एक पत्र निकालकर माता के सामने रखता हुआ बोला—उसके संदूक में यही पत्र मिला है।
गोकुल की माता कई मितट तक मर्माहत—सी बैठी जमीन की ओर ताकती रही! शोक और उससे अधिक पश्चाताप ने सिर को दबा रखा था। फिर पत्र उठाकर पढ़ने लगी—
‘स्वामी,
जब यह पत्र आपके हाथों में पहुँचेगा, तब तक में इस संसार से विदा हो जाऊँगी। मैं बड़ी अभागिन हूँ। मेरे लिए संसार में स्थान नहीं हे। आपको भी मेरे कारण क्लेश और निन्दा ही मिलेगी। मैने सोचकर देखा ओर यही निश्चय किया कि मेरे लिए मरना ही अच्छा हे। मुझ पर आपने जो दया की थी, उसके लिए आपको क्या प्रतिदान करूँ? जीवन में मेंने कभी किसी वस्तु की इच्छा नहीं की, परन्तु मुझे दु:ख है कि आपके चरणों पर सिर रखकर न मर सकी। मेरी अंतिम याचना है कि मेरे लिए आप शोंक न कीजिएगा। ईश्वर आपको सदा सुखी रखे।‘
माताजी ने पत्र रख दिया और ऑंखों से ऑंसू बहने लगे। बरामदे में वीशीधर निस्पंद खड़े थे और जैसे मानी लज्जानत उनके सामने खड़ी थी।
Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)
See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217