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सौत
मगर रामू तो अचेत पड़ा होगा। दस लंघन थोड़े नहीं होते। उसकी देह में था ही क्या। फिर उसे कौन बुलायेगा? दसिया को क्या गरज पड़ी है। कोई दूसरा घर कर लेगी। जवान है। सौ गाहक निकल आवेंगे। अच्छा वह आ तो रहा है। हां, आ रहा है। कुछ घबराया-सा जान पड़ता है। कौन आदमी है, इसे तो कभी मलसी में नहीं देखा, मगर उस वक्त से मलसी कभी गई भी तो नहीं। दो-चार नये आदमी आकर बसे ही होंगे।
बटोही चुपचाप कुए के पास से निकला। रजिया ने कलसा जगत पर रख दिया और उसके पास जाकर बोली—रामू महतो ने भेजा है तुम्हें? अच्छा तो चलो घर, मैं तुम्हारे साथ चलती हूं। नहीं, अभी मुझे कुछ देर है, बैलों को सानी-पानी देना है, दिया-बत्ती करनी है। तुम्हें रुपये दे दूं, जाकर दसिया को दे देना। कह देना, कोई काम हो तो बुला भेजें।
बटोही रामू को क्या जाने। किसी दूसरे गांव का रहने वाला था। पहले तो चकराया, फिर समझ गया। चुपके से रजिया के साथ चला गया और रूपये लेकर लम्बा हुआ। चलते-चलते रजिया ने पूछा—अब क्या हाल है उनका?
बटोही ने अटकल से कहा—अब तो कुछ सम्हल रहे हैं।
‘दसिया बहुत रो-धो तो नहीं रही है?’
‘रोती तो नहीं थी।’
‘वह क्यों रोयेगी। मालूम होगा पीछे।’
बटोही चला गया, तो रजिया ने बैलों को सानी-पानी किया, पर मन रामू ही की ओर लगा हुआ था। स्नेह-स्मृतियां छोटी-छोटी तारिकाओं की भांति मन में उदित होती जाती थीं। एक बार जब वह बीमार पड़ी थी, वह बात याद आई। दस साल हो गए। वह कैसे रात-दिन उसके सिरहाने बैठा रहता था। खाना-पीना तक भूल गया था। उसके मन में आया क्यों न चलकर देख ही आवे। कोई क्या कहेगा? किसका मुंह है जो कुछ कहे। चोरी करने नहीं जा रही हूं। उस अदमी के पास जा रही हूं, जिसके साथ पन्द्रह-बीस साल ही हूं। दसिया नाक सिकोड़ेगी। मुझे उससे क्या मतलब।
रजिया ने किवाड़ बन्द किए, घर मजूर को सहेजा, और रामू को देखने चली, कांपती, झिझकती, क्षमा का दान लिये हुए।
6
रामू को थोड़े ही दिनों में मालूम हो गया था कि उसके घर की आत्मा निकल गई, और वह चाहे कितना जोर करे, कितना ही सिर खपाये, उसमें स्फूर्ति नहीं आती। दासी सुन्दरी थी, शौकीन थी और फूहड़ थी। जब पहला नशा उतरा, तो ठांय-ठायं शुरू हुई। खेती की उपज कम होने लगी, और जो होती भी थी, वह ऊटपटांग खर्च होती थी। ऋण लेना पड़ता था। इसी चिन्ता और शोक में उसका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। शुरू में कुछ परवाह न की। परवाह करके ही क्या करता। घर में पैसे न थे। अताइयों की चिकित्सा ने बीमारी की जड़ और मजबूत कर दी और आज दस-बारह दिन से उसका दाना-पानी छूट गया था। मौत के इन्तजार में खाट पर पड़ा कराह रहा था। और अब वह दशा हो गई थी जब हम भविष्य से निश्चिन्त होकर अतीत में विश्राम करते हैं, जैसे कोई गाड़ीद आगे का रास्ता बन्द पाकर पीछे लौटे। रजिया को याद करके वह बार-बार रोता और दासी को कोसता—तेरे ही कारण मैंने उसे घर से निकाला। वह क्या गई, लक्ष्मी चली गई। मैं जानता हूं, अब भी बुलाऊं तो दौड़ी आयेगी, लेकिन बुलाऊं किस मुंह से! एक बार वह आ जाती और उससे अपने अपराध क्षमा करा लेती, फिर मैं खुशी से मरता। और लालसा नहीं है।
सहसा रजिया ने आकर उसके माथे पर हाथ रखते हुए पूछा—कैसा जी है तुम्हारा? मुझ तो आज हाल मिला।
रामू ने सजल नेत्रों से उसे देखा, पर कुछ कह न सका। दोनों हाथ जोड़कर उसे प्रणाम किया, पर हाथ जुड़े ही रह गये, और आंख उलट गई।
7
लाश घर में पड़ी थी। रजिया रोती थी, दसिया चिन्तित थी। घर में रूपये का नाम नहीं। लकड़ी तो चाहिए ही, उठाने वाले भी जलपान करेंगे ही, कफन के बगैर लाश उठेगी कैसे। दस से कम का खर्च न था। यहां
घर में दस पैसे भी नहीं। डर रही थी कि आज गहन आफत आई। ऐसी कीमती भारी गहने ही कौन थे। किसान की बिसात ही क्या, दो-तीन नग बेचने से दस मिल जाएंगे। मगर और हो ही क्या सकता है। उसने चोधरी के लड़के को बुलाकर कहा—देवर जी, यह बेड़ा कैसे पार लागे! गांव में कोई धेले का भी विश्वास करने वाला नहीं। मेरे गहने हैं। चौधरी से कहो, इन्हें गिरों रखकर आज का काम चलाएं, फिर भगवान् मालिक है।
‘रजिया से क्यों नहीं मांग लेती।’
सहसा रजिया आंखें पोंछती हुई आ निकली। कान में भनक पड़ी। पूछा—क्या है जोखूं, क्या सलाह कर रहे हो? अब मिट्टी उठाओगे कि सलाह की बेला है?
‘हां, उसी का सरंजाम कर रहा हूं।’
‘रुपये-पैसे तो यहां होंगे नहीं। बीमारी में खरच हो गए होंगे। इस बेचारी को तो बीच मंझधार में लाकर छोड़ दिया। तुम लपक कर उस घर चले जाओ भैया! कौन दूर है, कुंजी लेते जाओ। मंजूर से कहना, भंडार से पचास रुपये निकाल दे। कहना, ऊपर की पटरी पर रखे हैं।’
वह तो कुंजी लेकर उधर गया, इधर दसिया राजो के पैर पकड़ कर रोने लगी। बहनापे के ये शब्द उसके हृदय में पैठ गए। उसने देखा, रजिया में कितनी दया, कितनी क्षमा है।
रजिया ने उसे छाती से लगाकर कहा—क्यों रोती है बहन? वह चला गया। मैं तो हूं। किसी बात की चिन्ता न कर। इसी घर में हम और तुम दोनों उसके नाम पर बैठेंगी। मैं वहां भी देखूंगी यहां भी देखूंगी। धाप-भर की बात ही क्या? कोई तुमसे गहने-पाते मांगे तो मत देना।
दसिया का जी होता था कि सिर पटक कर मर जाय। इसे उसने कितना जलाया, कितना रुलाया और घर से निकाल कर छोडा।
रजिया ने पूछा—जिस-जिस के रुपये हों, सूरत करके मुझे बता देना। मैं झगड़ा नहीं रखना चाहती। बच्चा दुबला क्यों हो रहा है?
दसिया बोली—मेरे दूध होता ही नहीं। गाय जो तुम छोड़ गई थीं, वह मर गई। दूध नहीं पाता।
‘राम-राम! बेचारा मुरझा गया। मैं कल ही गाय लाऊंगी। सभी गृहस्थी उठा लाऊंगी। वहां कया रक्खा है।’
लाश से उठी। रजिया उसके साथ गई। दाहकर्म किया। भोज हुआ। कोई दो सौ रुपये खर्च हो गए। किसी से मांगने न पड़े।
दसिया के जौहर भी इस त्याग की आंच में निकल आये। विलासिनी सेवा की मूर्ति बन गई।
8
आज रामू को मरे सात साल हुए हैं। रजिया घर सम्भाले हुए है। दसिया को वह सौत नहीं, बेटी समझती है। पहले उसे पहनाकर तब आप पहनती हैं उसे खिलाकर आप खाती है। जोखूं पढ़ने जाता है। उसकी सगाई की बातचीत पक्की हो गई। इस जाति में बचपन में ही ब्याह हो जाता है। दसिया ने कहा—बहन गहने बनवा कर क्या करोगी। मेरे गहने तो धरे ही हैं।
रजिया ने कहा—नहीं री, उसके लिए नये गहने बनवाऊंगी। उभी तो मेरा हाथ चलता हैं जब थक जाऊं, तो जो चाहे करना। तेरे अभी पहनने-ओढ़ने के दिन हैं, तू अपने गहने रहने दे।
नाइन ठकुरसोहाती करके बोली—आज जोखूं के बाप होते, तो कुछ और ही बात होती।
रजिया ने कहा—वे नहीं हैं, तो मैं तो हूं। वे जितना करते, मैं उसका दूगा करूंगी। जब मैं मर जाऊं, तब कहना जोखूं का बाप नहीं है!
ब्याह के दिन दसिया को रोते देखकर रजिया ने कहा—बहू, तुम क्यों रोती हो? अभी तो मैं जीती हूं। घर तुम्हारा हैं जैसे चाहो रहो। मुझे एक रोटी दे दो, बस। और मुझे क्या करना है। मेरा आदमी मर गया। तुम्हारा तो अभी जीता है।
दसिया ने उसकी गोद में सिर रख दिया और खूब रोई—जीजी, तुम मेरी माता हो। तुम न होतीं, तो मैं किसके द्वार पर खड़ी होती। घर में तो चूहे लोटते थे। उनके राज में मुझे दुख ही दुख उठाने पड़े। सोहाग का सुख तो मुझे तुम्हारे राज में मिला। मैं दुख से नहीं रोती, रोती हूं भगवान् की दया पर कि कहां मैं और कहां यह खुशहाली!
रजिया मुस्करा कर रो दी।
--‘विशाल भारत’, दिसम्बर, १९३९
Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)
See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217