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विक्रमादित्य का तेग़ा प्रेमचंद vikramaadity ka tega Premchand's Hindi story

विक्रमादित्य का तेग़ा प्रेमचंद vikramaadity ka tega Premchand's Hindi story

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विक्रमादित्य का तेग़ा

 

बहुत जमाना गुजरा, एक रोज पेशावर के मौजे महानगर में प्रकृति की एक आश्चर्यजनक लीला दिखाई पड़ी। अंधेरी रात थी, बस्ती से कुछ दूर बरगद के एक छांहदार पेड़ के नीचे एक आग की लौ दिखायी पड़ी और एक झलमलाते हुए चिराग की तरह नजर आती रही। गांव में बहुत जल्द यह खबर फैल गयी। वहां के रहने वाले यह विचित्र दृश्य देखने के लिए यहां-वहां इकट्ठे हो गये। औरतें जो खाना पका रही थीं हाथों में गूंथा हुआ आटा लपेटे बाहर निकल आयीं। बूढ़ों ने बच्चों को कंधे पर बिठा लिया और खांसते हुए आ खड़े हुए। नवेली बहुएँ लाज के मारे बाहर न आ सकीं मगर दरवाजों की दरारों से झांक-झांककर अपने बेकरार दिलों को तस्कीन देने लगीं। उस गुम्बदनुमा पेड़ के नीचे अंधेरे के उस अथाह समुन्दर में रोशनी का यह धुंधला शोला पाप के बादलों से घिरी हुई आत्मा का सजीव उदाहरण पेश कर रहा था।
टेकसिंह ने ज्ञानियों की तरह सिर हिलाकर कहा-मैं समझ गया, भूतों की सभा हो रही हैं।
पंडित चेतराम ने विद्वानों के समान विश्वास के साथ कहा-तुम क्या जानों मैं तह पर पहुंच गया। साँप मणि छोड़कर चरने गया है। इसमें जिसे शक हो जाकर देख आये।
मुंशी गुलाबचंद बोले-इस वक्त जो वहां जाकर मणि को उठा लाये, उसके राजा होने में शक नहीं। मगर जान जोखिम है।
प्रेमसिंह एक बूढ़ा जाट था। वह इन महात्माओं की बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था।

 

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प्रेमसिंह दुनिया में बिलकुल अकेला था। उसकी सारी उम्र लड़ाइयों में खर्च हुई थी। मगर जब जिंदगी की शाम आई और वह सुबह की जिंदगी के टूटे-फूटे झोंपड़े में फिर आया तो उसके दिल में एक ख्वाहिश पैदा हुई। अफसोस, दुनिया में मेरा कोई नहीं ! काश, मेरे भी कोई बच्चा होता ! जो ख्वाहिश शाम के वक्त चिड़ियों को घोंसले में खींच लाती है और जिस ख्वाहिश से बेकरार होकर जानवर शाम को अपने थानों की तरफ चलते हैं, वही ख्वाहिश प्रेमसिंह के दिल में मौजें मारने लगी। ऐसा कोई नहीं, जिसे वह रात के वक्त कौर बना-बना कर खिलाये। ऐसा कोई नहीं, जिसे वह रात के वक्त लोरियां सुना-सुनाकर सुलाये। यह आकांक्षाएं प्रेमसिंह के दिल में कभी न पैदा हुई थीं। मगर सारे दिन का अकेलापन इतना उदास करने वाला नहीं होता जितना शाम का।
एक दिन प्रेमसिंह बाजार गया हुआ था। रास्ते में उसने देखा कि एक घर में आग लगी हुई है। आग के ऊंचे-ऊंचे डरावने शोले हवा में अपने झण्डे लहरा रहे हैं और एक औरत दरवाजे पर खड़ी सर पीट-पीट कर रो रही है। यह बेचारी विधवा स्त्री थी, उसका बच्चा अंदर सो रहा था कि घर में आग लग गयी। वह दौड़ी कि गांव के आदमियों को अग बुझाने के लिए बुलाये कि इतने में आग ने जोर पकड़ लिया और अब तमाम जलते हुए शोलों का उमड़ा हुआ दरिया उसे उसके प्यारे बच्चे से अलग किये हुए था। प्रेमसिंह के दिल में उस औरत की दर्दनाक आहें चुभ गयीं। वह बेधड़क आग में घुस गया और सोते हुए बच्चे को गोद में लेकर बाहर निकल आया। विधवा स्त्री ने बच्चे को गोद में ले लिया और उसके कोमल गालों को बार-बार चूमकर आंखों में आंसू भर लायी और बोली-महाराज, तुम जो कोई हो, मैं आज अपना बच्चा तुम्हें भेंट करती हूं। तुम्हें ईश्वर ने और भी लड़के दिये होंगे, उन्हीं के साथ इस अनाथ की भी खबर लेते रहना। तुम्हारे दिल में दया है, मेरा सब कुछ अग्नि देवी ने ले लिया, अब इस तन के कपड़े के सिवा मेरे पास और कोई चीज नहीं। मैं मजदूरी करके अपना पेट पाल लूंगी। यह बच्चा अब तुम्हारा है।
प्रेमसिंह की आंखें डबडबा गयीं, बोला-बेटी, ऐसा न कहो, तुम मेरे घर चला और ईश्वर ने जो कुछ रुखा-सूखा दिया है, वह खाओ। मैं भी दुनिया में बिलकुल अकेला हूं, कोई पानी देने वाला नहीं है। क्या जाने परमात्मा ने इसी बहाने से हम लोगों को मिलाया हो। शाम के वक्त जब प्रेमसिंह घर लौटा तो उसकी गोद में एक हंसता हुआ फूल जैसा बच्चा था और पीछे-पीछे एक पीली और मुरझायी औरत। आज प्रेमसिंह का घर आबाद हुआ। आज से उसे किसी ने शाम के वक्त नदी के किनारे खामोश बैठे नहीं देखा।
इसी बच्चे के लिए सांप की मणि लाने का निश्चय करके प्रेमसिंह आधी रात वक्त कमर में तलवार लगाये, चौंक-चौंककर कदम रखता बरगद के पेड़ की तरफ चला।
जब पेड़ के नीचे पहुंचा तो मणि की दमक ज्यादा साफ नजर आने लगी। मगर सांप का कहीं पता न था। प्रेमसिंह बहुत खुश हुआ, शायद सांप कहीं चरने गया है। मगर जब मणि को लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो वहां साफ जमीन के सिवाय और कोई चीज न दिखाई दी। बूढ़े जाट का कलेजा सन से हो गया ओर बदन के रोंगटे खड़े हो गये। यकायक उसे अपने सामने काई चीज लटकती हुई दिखाई दी। प्रेमसिंह ने तेगा खींच लिया और उसकी तरफ लपका मगर देखा तो वह बरगद की जटा थी। अब प्रेमसिंह का डर बिलकुल दूर हो गया। उसने उस जगह को, जहां से रोशनी की लौ निकल रही थी, अपनी तलवार से खोदना शुरु किया। जब एक बित्ता जमीन खुद गयी तो तलवार किसी सख्त चीज से टकरायी और लौ भड़क उठी। यह एक छोटा-सा तेगा था मगर प्रेमसिंह के हाथ में आते ही उसकी लपट जैसी चमक गायब हो गई।


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यह एक छोटा-सा तेगा था, मगर बहुत आबदार। उसकी मूठ में अनमोल जवाहरात जड़े हुए थो और मूठ के ऊपर ‘विक्रमादित्य’ खुदा हुआ था। यह विक्रमादित्य का तेगा था, उस विक्रमादित्य का जो भारत का सूर्य बनकर चमका, जिसके गुन अब तक घर-घर गाये जाते हैं। इस तेगे ने भारत के अमर कालिदास की सोहबतें देखी हैं। जिस वक्त विक्रमादित्य रातों को वेश बदलकर दुख-दर्द की कहानी अपने कानों सुनने और अत्याचारों की लीला अपनी संवेदनशील आंखों से देखने के लिए निकलते थे, यही आबदार तेगा उनके बगल की शोभा हुआ करता था। जिस दया और न्याय ने विक्रमादित्य का नाम अब तक जिन्दा रक्खा है, उसमें यह तेगा भी उनका हमदर्द और शरीक था। यह उनके साथ उस राजसिंहासन पर शोभायमान होता था जिस पर राजा भोज को भी बैठना नसीब न हुआ।
इस तेगे में गजब की चमक थी। बहुत जमाने तक जमीन के नीचे दफन रहने पर भी उस पर जंग का नाम न था। अंधेरे घरों में उससे उजाला हो जाता था। राज भर चमकते हुए तारे की तरह जगमगाता रहता। जिस तरह चांद बादलों के परदे में छिप जाता है। मगर उसकी मद्धिम रोशनी छन-छनकर आती है, उसी तरह गिलाफ के अंदर से उस तेगे की किरनें नजरों के तीर मारा करती थीं।
मगर जब कोई व्यक्ति उसे हाथ में ले लेता तो उसकी चमक गायब हो जाती थी। उसका यह गुण देखकर लोग दंग रह जाते थे।
हिन्दुस्तान में इन दिनों शेरे पंजाब की ललकार गूंज रही थी। रणजीतसिंह दानशीलता और वीरता, दया और न्याय में अपने समय के विक्रमादित्य थे। उसे घमंडी काबुल को, जिसने सदियों तक हिन्दोस्तान को सर नहीं उठाने दिया था, खाक में मिलाकर लाहौर जाते थे। महानगर का खुला हुआ दिलकश मैदान और पेड़ों का आकर्षक जमघट देखा तो वहीं पड़ाव डाल दिया। बाजार लग गए, खेमे और शामियाने गाड़ दिये गये। जब रात हुई तो पच्चीस हजार चूल्हों का काला धुआं सारे मैदान और बगीचे पर छा गया। और इस धुएं के आसमान में चूल्हों की आग, कंदीलें और मशालें ऐसी मालूम होती थीं गोया अंधेरी रात में आसमान पर तारे निकल आये हैं।

 

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शाही आरामगाह से गाने-बजाने की पुरशार और पुरजोश अवाजें आ रही थीं। सिख सरदारों ने सरहदी जगहों पर सैकड़ों अफगानी औरतें गिरफ्तार कर ली थीं, जैसा उन दिनों लड़ाइयों में आम तौर पर हुआ करता था। वही औरतें इस वक्त सायेदार दरख्तों के नीचे कुदरती फर्श से सजी हुई महफिल में अपनी बेसुरी ताने अलाप रही थीं और महफिल के लोग जिन्हें गाने का आनन्द उठाने की इतनी लालसा न थी, जितनी हंसने और खुश होने की, खूब जोर-जोर से कहकहे लगा-लगाकर हंस रहे थे। कहीं-कहीं मनचले सिपाहियों ने स्वांग भरे थे, वह कुछ मशालें और सैंकड़ों तमाशाइयों की भीड़ साथ लिये हुए इधर-उधर धूम मचाते हुए फिरते थे। सारी फौज के दिलों में बैठकर विजय की देवी अपनी लीला दिखा रही थी।
रात के नौ बजे होंगे कि एक आदमी काला कंबल ओढ़े एक बांस का सोंटा लिए शाही खेमे से बाहर निकला और बस्ती की तरफ आहिस्ता-आहिस्ता चला। आज महानगर भी खुशी से ऐंठ रहा हैं। दरवाजों पर कई-कई बत्तियोंवाले चौमुखे दीवट जल रहे हैं। दरवाजों के सहन झाड़कर साफ कर दिये गये हैं। दो-एक जगह शहनाइयां बज रही हैं और कहीं-कहीं लोग भजन गा रहे हैं। काली कमलीवाला मुसाफिर इधर-उधर देखता-भालता गांव चौपाल में जा पहुंचा। चौपाल खूब सजा हुआ था और गांव के बड़े लोग बैठे  हुए इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर बहस कर रहे थे कि महाराजा रणजीतसिंह की सेवा में कौन-सी भेंट पेश की जाए। आज महाराज ने इस गांव को अपने कदमों से रोशन किया है, तो क्या इस गांव के बसनेवाले महाराज के कदमों को न चूमेंगे ! ऐसे शुभ अवसर कहां आते हैं। सब लोग सर झुकाये चिंतित बैठे थे। किसी की अकल कुछ काम नहीं करती थी। वहां अनमोल जवाहरात की किश्तियां कहां ? पूरे घंटे भर तक किसी ने सर न उठाया। यकायक बूढ़ा प्रेमसिंह खड़ा हो गया और बोला-अगर आप लोग पसंद करें तो मैं विक्रमादित्य की तलवार नजराने के लिए दे सकता हूँ।
इतना सुनते ही सबके सब आदमी खुशी से उछल पड़े और एक हुल्लड़ सा मच गया। इतने में एक मुसाफिर कमली ओढ़े चौपाल के अंदर आया और हाथ उठाकर बोला-भाइयों, वाह गुरु की जय !
चेतराम बोला-तुम कौन हो?
मुसाफिर-राहगीर हूं, पेशावर जाना है। रात ज्यादा आ गई है इसलिए यहीं लेट रहूंगा।
टेकसिंह-हां-हां, आराम से सोओ। चारपाई की जरुरत हो तो मंगा दूं।
मुसाफिर-नहीं, आप तकलीफ न करें, मैं इसी टाट पर लेट रहूंगा। अभी आप लोग विक्रमादित्य की तलवार की कुछ बातचीत कर रहे थे। यही सुनकर चला आया। वर्ना बाहर ही पड़ा रहता। क्या यहां किसी के पास विक्रमादित्य की तलवार है?
मुसाफिर की बातचीत से साफ जाहिर होता था कि वह कोई शरीफ आदमी है। उसकी आवाज में वह कशिश थी जो कानों को अपनी तरफ खींच लिया करती है। सबकी आंखें उसकी तरफ उठ गईं। पंडित चेतराम बोले-जी हां, अर्सा हुआ महाराज विक्रमादित्य का तेगा जमीन से निकला है।
मुसाफिर- यह क्योंकर मालूम हुआ कि यह तेगा उन्हीं का है ?
चेतराम – उसकी मूठ पर उनका नाम खुदा हुआ हैं।
मुसाफिर –उनकी तलवार तो बहुत बड़ी होगी?
चेतराम – नहीं, वह तो एक छोटा-सा नीमचा है।
मुसाफिर – तो फिर उसमें कोई खास गुण होगा।
चेतराम – जी हां, उसके गुण अनमोल हैं। देखकर अक्ल दंग रह जाती है। जहाँ रख दो, उसमें जलते चिराग की-सी रोशनी पैदा हो जाती हैं।
मुसाफिर – ओफ्फोह!
चेतराम- मगर ज्योंही कोई आदमी उसे हाथ में ले लेता है, उसकी सारी चमक-दमक गायब हो जाती है।
यह अजीब बात सुनकर उस मुसाफिर की वही कैफियत हो गई जो एक आश्चर्यजनक कहानी सुनने से बच्चों की हो जाया करती है। उसकी आंख और भंगिमा से अधीरता प्रकट होने लगी। जोश से बोला-विक्रमादित्य, तुम्हारे प्रताप को धन्य है !
जरा देर के बाद फिर बोला-वह कौन बुजुर्ग हैं जिनके पास यह अनमोल चीज है ?
प्रेमसिंह ने गर्व से कहा-मेरे पास है।
मुसाफिर- क्या मैं उसे देख सकता हूं?
प्रेमसिंह – हां, मैं आपको सवेरे दिखाऊंगा। मगर नहीं, ठहरिए, सवेरे तो हम उसे महाराज रणजीतसिंह को भेंट करेंगे, आपका जी चाहे तो इसी वक्त देख लीजिए।
दोनों आदमी चौपाल से चल खड़े हुए। प्रेमसिंह ने मुसाफिर को अपने घर में ले जाकर तेगे के पास खड़ा कर दिया। इस कमरे में चिराण न था मगर सारा कमरा रोशनी से जगमगा रहा था। मुसाफिर ने पुरजोश आवाज से कहा- विक्रमादित्य, तुम्हारे प्रताप को धन्य है, इतना जमाना गुजरने पर भी तुम्हारी तलवार का तेज कम नहीं हुआ।
यह कहकर उसने बड़े चाव से हाथ बढ़ाकर तेगे को पकड़     लिया मगर उसका हाथ लगते ही तेगे की चमक जाती रही और कमरे में अंधेरा छा गया।
मुसाफिर ने फौरन तेगे को तख्त पर रख दिया। उसका चेहरा अब बहुत उदास हो गया था। उसने प्रेमसिंह से कहा- क्या तुम यह तेगा रण जीतसिंह को भेंट दोगे? वह इसे हाथ में लेने योग्य नहीं हैं।
यह कहकर मुसाफिर तेजी से बाहर निकल आया। वृन्दा दरवाजे वर खड़ी थी, मुसाफिर ने उसके चेहरे की तरफ एक बार गौर से देखा, मगर कुछ बोला नहीं।
रात आधी से ज्यादा गुजर चुकी थी। मगर फौज में शोर-गुल बदस्तूर जारी था। खुशी के हंगामे ने नींद को सिपाहियों की आंखों से दूर भगा दिया। अगर कोई अंगड़ाई लेता या ऊंघता नजर आ जाता है तो उसके साथी उसे एक टांग से खड़ा कर देते हैं। यकायक यह खबर मशहूर हुई कि महाराज इसी वक्त कूच करेंगे। लोग ताज्जुब में आ गये कि महाराज ने क्यों इस अंधेरी रात में सफर करने की ठानी है ! इस डर से कि फौज को इसी वक्त कूच करना पड़ेगा चारों तरफ खलबली-सी मच गयी। वह खुद थोड़े-से आजमाये हुये सरदारों के साथ रवाना हो गए। इसका कारण किसी की समझ में नहीं आया।
जिस तरह बांध टूट जाने से तालाब का पानी काबू से बाहर होकर जारे-शोर के साथ बह निकलता है, उसी तरह महाराज के जाते ही फौज के अफसर और सिपाही होश-हवास खोकर मस्तियां करने लगे।

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वृन्दा को विधवा हुए तीन साल गुजरे हैं। उसका पति एक बेफिक्र और रंगीन मिजाज आदमी था। गाने-बजाने से उसे प्रेम था। घर की जो कुछ जमा-जथा थी, वह सरस्वती और उसके पुजारियों को भेंट कर दी। तीन लाख की जायदाद तीन साल के लिए भी काफी न हो सकी। मगर उसकी कामना पूरी हो गई। सरस्वती देवी ने उसे आर्शीवाद दिया और उसने संगीत-कला में ऐसा कमाल पैदा किया कि अच्छे-अच्छे गुनी उसके सामने जबान खोलते डरते थे। गाने का उसे जितना शौक था, उतनी ही मुहब्ब्त उसे वृन्दा से थी। उसकी जान अगर गाने में बसती थी तो दिल वृन्दा की मुहब्बत से भरा हुआ था पहले छेड़छाड़ में और फिर दिलबहलाव के लिए उसने वृन्दा को कुछ गाना सिखाया। यहां तक कि उसको भी इस अमृत का स्वाद मिल गया और यद्यपि उसके पति को मरे तीन साल गुजर गये हैं और उसने सांसारिक सुखों को अंतिम नमस्कार कर लिया है यहां तक कि किसी ने उसके गुलाब-के-से होंठों पर मुस्कराहट की झलक नहीं देखी मगर गाने की तरफ अभी तक उसकी तबियत झुकी हुई थी। उसका मन जब कभी बीते हुए दिनों की याद से उदास होता है तो वह कुछ गाकर जी बहला लेती है। लेकिन गाने में उसका उद्देश्य इन्द्रिय का आनंद नहीं होता, बल्कि जब वह कोई सुंदर राग अलापने लगती है तो ख्याल में अपने पति को खुशी से मुस्कराते हुए देखती है। वही काल्पनिक चित्र उसके गाने की प्रशंसा करता हुआ दिखाई देता है। गाने में उसका लक्ष्य अपने स्वर्गीय पति की स्मृति को ताजा करना है। गाना उसके नजदीक पतिव्रत धर्म का निबाह है।
तीन पहर रात जा चुकी  है, आसमान पर चांद की रोशनी मंद हो चुकी है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है और इन विचारों को जन्म देने वाले सन्नाटे में वृन्दा जमीन पर बैठी हुई मद्धिम स्वरों में गा रही है :
बता दे कोई प्रेमनगर की डगर।
वृन्दा की आवाज में लोच भी है और दर्द भी। उसमें बेचैन दिल को तसकीन देने वाली ताकत भी है और सोये हुए भावों को जगा देने की शक्ति भी। सुबह के वक्त पूरब की गुलाबी आभा में सर उठाये हुए फूलों से लदी हुई डाली पर बैठकर गानेवाली बुलबुल की चहक में भी यह घुलावट नहीं होती। यह वह गाना है जिसे सुनकर अकलुष आत्माएं सिर धुनने  लगती हैं। उसकी तान कानों को छेदती हुई  जिगर में आ पहुंचती है :

बता दे कोई प्रेमसिंह की डगर।
मैं बौरी पग-पग पर भटकूं, काहू की कुछ नाहिं खबर।
बता दे कोई प्रेमसिंह की डगर।

     यकायक किसी ने दरवाजा खटखटाया और कई आदमी पुकारने लगे-किसका मकाने है, दरवाजा खोलो।
वृन्दा चुप हो गयी। प्रेमसिंह ने उठकर दरवाजा खोल दिया। दरवाजे के सहन में सिपाहियों की एक भीड़ थी। दरवाजा खुलते ही कई सिपाही दहलीज में घुस आये और बोले-तुम्हारे घर में कोई गानेवाली रहती है, हम उसका गाना सुनेंगे।
प्रेमसिंह ने कड़ी आवाज में कहा-हमारे यहां कोई गानेवाली नहीं है।
इस पर कई सिपाहियों ने प्रेमसिंह को पकड़ लिया और बोले – तेरे घर से गाने की आवाज आती थी।
एक सिपाही-बताता क्यों नहीं रे, कौन गा रहा है ?
प्रेमसिंह –मेरी लड़की गा रही थी। मगर वह गानेवाली नहीं है।

सिपाही-कोई हो, हम तो आज गाना सुनेंगे।

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