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मुंशी प्रेमचंद
वरदान
17 कमला के नाम विरजन के पत्र
पेज- 43
(6)
मझगाँव
मेरे प्राणधिक प्रियतम,
पूरे पन्द्रह दिन के पश्चात् तुमने विरजन की सुधि ली। पत्र को बारम्बार पढ़ा। तुम्हारा पत्र रुलाये बिना नहीं मानता। मैं यों भी बहुत रोया करती हूँ। तुमको किन-किन बातों की सुधि दिलाऊँ? मेरा हृदय निर्बल है कि जब कभी इन बातों की ओर ध्यान जाता है तो विचित्र दशा हो जाती है। गर्मी-सी लगती है। एक बड़ी व्यग्र करने वाली, बड़ी स्वादिष्ट, बहुत रुलानेवाली, बहुत दुराशापूर्ण वेदना उत्पन्न होती है। जानती हूँ कि तुम नहीं आ रहे और नहीं आओगे; पर बार-बार जाकर खड़ी हो जाती हूँ कि आ तो नहीं गये।
कल सायंकाल यहाँ एक चित्ताकर्षक प्रहसन देखने में आया। यह धोबियों का नाच था। पन्द्रह-बीस मनुष्यों का एक समुदाय था। उसमे एक नवयुवक श्वेत पेशवाज पहिने, कमर में असंख्य घंटियाँ बाँधे, पाँव में घुघँरु पहिने, सिर पर लाल टोपी रखे नाच रहा था। जब पुरुष नाचता था तो मृअंग बजने लगती थी। ज्ञात हुआ कि ये लोग होली का पुरस्कार माँगने आये हैं। यह जाति पुरस्कार खूब लेती है। आपके यहाँ कोई काम-काज पड़े उन्हें पुरस्कार दीजिये; और उनके यहाँ कोई काम-काज पड़े, तो भी उन्हें पारितोषिक मिलना चाहिए। ये लोग नाचते समय गीत नहीं गाते। इनका गाना इनकी कविता है। पेशवाजवाला पुरुष मृदंग पर हाथ रखकर एक विरहा कहता है। दूसरा पुरुष सामने से आकर उसका प्रत्युत्तर देता है और दोनों तत्क्षण वह विरहा रचते हैं। इस जाति में कवित्व-शक्ति अत्यधिक है। इन विरहों को ध्यान से सुनो तो उनमे बहुधा उत्तम कवित्व भाव प्रकट किये जाते हैं। पेशवाजवाले पुरुषों ने प्रथम जो विरहा कहा था, उसका यह अर्थ कि ऐ धोबी के बच्चों! तुम किसके द्वार पर आकर खड़े हो? दूसरे ने उत्तर दिया-अब न अकबर शाह है न राजा भोज, अब जो हैं हमारे मालिक हैं उन्हीं से माँगो। तीसरे विरहा का अर्थ यह है कि याचकों की प्रतिष्ठा कम होती है अतएव कुछ मत माँगों, गा-बाजकर चले चलो, देनेवाला बिन माँगे ही देगा। घण्टे-भर से ये लोग विरहे कहते रहे। तुम्हें प्रतति न होगी, उनके मुख से विरहे इस प्रकार बेधड़क निकलते थे कि आश्चर्य प्रकट होता था। स्यात इतनी सुगमता से वे बातें भी न कर सकते हों। यह जाति बड़ी पियक्कड़ है। मदिरा पानी की भाँति पीती है। विवाह में मदिरा गौने में मदिरा, पूजा-पाठ में मदिरा। पुरस्कार माँगेंगे तो पीने के लिए। धुलाई माँगेंगे तो यह कहकर कि आज पीने के लिए पैसे नहीं हैं। विदा होते समय बेचू धोबी ने जो विरहा कहा था, वह काव्यालंकार से भरा हुआ है। तुम्हारा परिवार इस प्रकार बढ़े जैसे गंगा जी का जल। लड़के फूले-फलें, जैसे आम का बौर। मालकिन को सोहाग सदा बना रहे, जैसे दूब की हरियाली। कैसी अनोखी कविता है।
तुम्हारी
विरजन
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