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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

अयोध्याकाण्ड

अयोध्याकाण्ड पेज 11

निधरक बैठि कहइ कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी।।
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुँ महिप मृदु लच्छ समाना।।
जनु कठोरपनु धरें सरीरू। सिखइ धनुषबिद्या बर बीरू।।
सब प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुँ तनु धरि निठुराई।।
मन मुसकाइ भानुकुल भानु। रामु सहज आनंद निधानू।।
बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन।।
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।।
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।।

दो0-मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर।।41।।


भरत प्रानप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजु।
जों न जाउँ बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा।।
सेवहिं अरँडु कलपतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं बिषु मागी।।
तेउ न पाइ अस समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं।।
अंब एक दुखु मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी।।
थोरिहिं बात पितहि दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी।।
राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि ते कछु बड़ अपराधू।।
जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ तोहि कहु सतिभाऊ।।

दो0-सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान।।42।।


रहसी रानि राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई।।
सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मै कछु जाना।।
तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता।।
राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू।।
पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेंपन जेहिं अजसु न होई।।
तुम्ह सम सुअन सुकृत जेहिं दीन्हे। उचित न तासु निरादरु कीन्हे।।
लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहँ गयादिक तीरथ जैसे।।
रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए।।

दो0-गइ मुरुछा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह।
सचिव राम आगमन कहि बिनय समय सम कीन्ह।।43।।

अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे।।
सचिवँ सँभारि राउ बैठारे। चरन परत नृप रामु निहारे।।
लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुँ फनिक फिरि पाई।।
रामहि चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू।।
सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयँ लगावत बारहिं बारा।।
बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं।।
सुमिरि महेसहि कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदासिव मोरी।।
आसुतोष तुम्ह अवढर दानी। आरति हरहु दीन जनु जानी।।

दो0-तुम्ह प्रेरक सब के हृदयँ सो मति रामहि देहु।
बचनु मोर तजि रहहि घर परिहरि सीलु सनेहु।।44।।

 

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