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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

अयोध्याकाण्ड

अयोध्याकाण्ड पेज 26

उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामुगुह लखन समेता॥
केवट उतरि दंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा॥
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥
कहेउ कृपाल लेहि उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥
नाथ आजु मैं काह न पावा। मिटे दोष दुख दारिद दावा॥
बहुत काल मैं कीन्हि मजूरी। आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी॥
अब कछु नाथ न चाहिअ मोरें। दीन दयाल अनुग्रह तोरें॥
फिरती बार मोहि जो देबा। सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा॥

दोo - बहुत कीन्ह प्रभु लखन सियँ नहिं कछु केवटु लेइ।
बिदा कीन्ह करुनायतन भगति बिमल बरु देइ॥102॥

तब मज्जनु करि रघुकुलनाथा। पूजि पारथिव नायउ माथा।।
सियँ सुरसरिहि कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ पुरउबि मोरी।।
पति देवर संग कुसल बहोरी। आइ करौं जेहिं पूजा तोरी।।
सुनि सिय बिनय प्रेम रस सानी। भइ तब बिमल बारि बर बानी।।
सुनु रघुबीर प्रिया बैदेही। तव प्रभाउ जग बिदित न केही।।
लोकप होहिं बिलोकत तोरें। तोहि सेवहिं सब सिधि कर जोरें।।
तुम्ह जो हमहि बड़ि बिनय सुनाई। कृपा कीन्हि मोहि दीन्हि बड़ाई।।
तदपि देबि मैं देबि असीसा। सफल होपन हित निज बागीसा।।

दो0-प्राननाथ देवर सहित कुसल कोसला आइ।
पूजहि सब मनकामना सुजसु रहिहि जग छाइ।।103।।


गंग बचन सुनि मंगल मूला। मुदित सीय सुरसरि अनुकुला।।
तब प्रभु गुहहि कहेउ घर जाहू। सुनत सूख मुखु भा उर दाहू।।
दीन बचन गुह कह कर जोरी। बिनय सुनहु रघुकुलमनि मोरी।।
नाथ साथ रहि पंथु देखाई। करि दिन चारि चरन सेवकाई।।
जेहिं बन जाइ रहब रघुराई। परनकुटी मैं करबि सुहाई।।
तब मोहि कहँ जसि देब रजाई। सोइ करिहउँ रघुबीर दोहाई।।
सहज  सनेह राम लखि तासु। संग लीन्ह गुह हृदय हुलासू।।
पुनि गुहँ ग्याति बोलि सब लीन्हे। करि परितोषु बिदा तब कीन्हे।।

दो0- तब गनपति सिव सुमिरि प्रभु नाइ सुरसरिहि माथ।
सखा अनुज सिया सहित बन गवनु कीन्ह रधुनाथ।।104।।


तेहि दिन भयउ बिटप तर बासू। लखन सखाँ सब कीन्ह सुपासू।।
प्रात प्रातकृत करि रधुसाई। तीरथराजु दीख प्रभु जाई।।
सचिव सत्य श्रध्दा प्रिय नारी। माधव सरिस मीतु हितकारी।।
चारि पदारथ भरा भँडारु। पुन्य प्रदेस देस अति चारु।।
छेत्र अगम गढ़ु गाढ़ सुहावा। सपनेहुँ नहिं प्रतिपच्छिन्ह पावा।।
सेन सकल तीरथ बर बीरा। कलुष अनीक दलन रनधीरा।।
संगमु सिंहासनु सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा।।
चवँर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा।।

दो0- सेवहिं सुकृति साधु सुचि पावहिं सब मनकाम।
बंदी बेद पुरान गन कहहिं बिमल गुन ग्राम।।105।।

 

 

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