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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

अयोध्याकाण्ड

अयोध्याकाण्ड पेज 4

सुनि सुर बिनय ठाढ़ि पछिताती। भइउँ सरोज बिपिन हिमराती।।
देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी।।
बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब राम प्रभाऊ।।
जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देव हित लागी।।
बार बार गहि चरन सँकोचौ। चली बिचारि बिबुध मति पोची।।
ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती।।
आगिल काजु बिचारि बहोरी। करहहिं चाह कुसल कबि मोरी।।
हरषि हृदयँ दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई।।

दो0-नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकेइ केरि।
अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि।।12।।

दीख मंथरा नगरु बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा।।
पूछेसि लोगन्ह काह उछाहू। राम तिलकु सुनि भा उर दाहू।।
करइ बिचारु कुबुद्धि कुजाती। होइ अकाजु कवनि बिधि राती।।
देखि लागि मधु कुटिल किराती। जिमि गवँ तकइ लेउँ केहि भाँती।।
भरत मातु पहिं गइ बिलखानी। का अनमनि हसि कह हँसि रानी।।
ऊतरु देइ न लेइ उसासू। नारि चरित करि ढारइ आँसू।।
हँसि कह रानि गालु बड़ तोरें। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरें।।
तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि।।

दो0-सभय रानि कह कहसि किन कुसल रामु महिपालु।
लखनु भरतु रिपुदमनु सुनि भा कुबरी उर सालु।।13।।
कत सिख देइ हमहि कोउ माई। गालु करब केहि कर बलु पाई।।
रामहि छाड़ि कुसल केहि आजू। जेहि जनेसु देइ जुबराजू।।
भयउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन। देखत गरब रहत उर नाहिन।।
देखेहु कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोकि मोर मनु छोभा।।
पूतु बिदेस न सोचु तुम्हारें। जानति हहु बस नाहु हमारें।।
नीद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई।।
सुनि प्रिय बचन मलिन मनु जानी। झुकी रानि अब रहु अरगानी।।
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी। तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी।।

दो0-काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि।
तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरतमातु मुसुकानि।।14।।


प्रियबादिनि सिख दीन्हिउँ तोही। सपनेहुँ तो पर कोपु न मोही।।
सुदिनु सुमंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेहि दिन होई।।
जेठ स्वामि सेवक लघु भाई। यह दिनकर कुल रीति सुहाई।।
राम तिलकु जौं साँचेहुँ काली। देउँ मागु मन भावत आली।।
कौसल्या सम सब महतारी। रामहि सहज सुभायँ पिआरी।।
मो पर करहिं सनेहु बिसेषी। मैं करि प्रीति परीछा देखी।।
जौं बिधि जनमु देइ करि छोहू। होहुँ राम सिय पूत पुतोहू।।
प्रान तें अधिक रामु प्रिय मोरें। तिन्ह कें तिलक छोभु कस तोरें।।

दो0-भरत सपथ तोहि सत्य कहु परिहरि कपट दुराउ।
हरष समय बिसमउ करसि कारन मोहि सुनाउ।।15।।

 

 

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