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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

अयोध्याकाण्ड

अयोध्याकाण्ड पेज 65

भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि भए बिदेहू।। 
भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढ़ि तीर अबला सी।।
गा चह पार जतनु हियँ हेरा। पावति नाव न बोहितु बेरा।।
औरु करिहि को भरत बड़ाई। सरसी सीपि कि सिंधु समाई।।
भरतु मुनिहि मन भीतर भाए। सहित समाज राम पहिँ आए।।
प्रभु प्रनामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु।।
बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी।।     
सुनहु राम सरबग्य सुजाना। धरम नीति गुन ग्यान निधाना।। 
  
दो0-सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ।     
पुरजन जननी भरत हित होइ सो कहिअ उपाउ।।257।।


आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जूआरिहि आपन दाऊ।।
सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ। नाथ तुम्हारेहि हाथ उपाऊ।।
सब कर हित रुख राउरि राखेँ। आयसु किएँ मुदित फुर भाषें।। 
प्रथम जो आयसु मो कहुँ होई। माथेँ मानि करौ सिख सोई।।  
पुनि जेहि कहँ जस कहब गोसाईँ। सो सब भाँति घटिहि सेवकाईँ।।   
कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाषा। भरत सनेहँ बिचारु न राखा।। 
तेहि तें कहउँ बहोरि बहोरी। भरत भगति बस भइ मति मोरी।।   
मोरेँ जान भरत रुचि राखि। जो कीजिअ सो सुभ सिव साखी।।  
 
दो0-भरत बिनय सादर सुनिअ करिअ बिचारु बहोरि।
करब साधुमत लोकमत नृपनय निगम निचोरि।।258।।


गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम ह्दयँ आनंदु बिसेषी।।  
भरतहि धरम धुरंधर जानी। निज सेवक तन मानस बानी।।
बोले गुर आयस अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगलमूला।।
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुअन भरत सम भाई।।
जे गुर पद अंबुज अनुरागी। ते लोकहुँ बेदहुँ बड़भागी।।
राउर जा पर अस अनुरागू। को कहि सकइ भरत कर भागू।।
लखि लघु बंधु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई।।
भरतु कहहीं सोइ किएँ भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई।।

दो0-तब मुनि बोले भरत सन सब सँकोचु तजि तात।
कृपासिंधु प्रिय बंधु सन कहहु हृदय कै बात।।259।।


सुनि मुनि बचन राम रुख पाई। गुरु साहिब अनुकूल अघाई।।
लखि अपने सिर सबु छरु भारू। कहि न सकहिं कछु करहिं बिचारू।।
पुलकि सरीर सभाँ भए ठाढें। नीरज नयन नेह जल बाढ़ें।।
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा। एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ। अपराधिहु पर कोह न काऊ।।
मो पर कृपा सनेह बिसेषी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी।।
सिसुपन तेम परिहरेउँ न संगू। कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू।।
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही। हारेहुँ खेल जितावहिं मोही।।

दो0-महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन।।260।।

 

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