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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

अयोध्याकाण्ड

अयोध्याकाण्ड पेज 66

बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीचु जननी मिस पारा।
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनीं समुझि साधु सुचि को भा।।
मातु मंदि मैं साधु सुचाली। उर अस आनत कोटि कुचाली।।
फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकुता प्रसव कि संबुक काली।।
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू। मोर अभाग उदधि अवगाहू।।
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू। जारिउँ जायँ जननि कहि काकू।।
हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा। एकहि भाँति भलेहिं भल मोरा।।
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू। लागत मोहि नीक परिनामू।।

दो0-साधु सभा गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराउ।।261।।

भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी।।
देखि न जाहि बिकल महतारी। जरहिं दुसह जर पुर नर नारी।।
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला।।
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि बेष लखन सिय साथा।।
बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ।।
बहुरि निहार निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू।।
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई।।
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी।।

दो0-तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि।।262।।


सुनि अति बिकल भरत बर बानी। आरति प्रीति बिनय नय सानी।।
सोक मगन सब सभाँ खभारू। मनहुँ कमल बन परेउ तुसारू।।
कहि अनेक बिधि कथा पुरानी। भरत प्रबोधु कीन्ह मुनि ग्यानी।।
बोले उचित बचन रघुनंदू। दिनकर कुल कैरव बन चंदू।।
तात जाँय जियँ करहु गलानी। ईस अधीन जीव गति जानी।।
तीनि काल तिभुअन मत मोरें। पुन्यसिलोक तात तर तोरे।।
उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई।।
दोसु देहिं जननिहि जड़ तेई। जिन्ह गुर साधु सभा नहिं सेई।।

दो0-मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुमिरत नामु तुम्हार।।263।।


कहउँ सुभाउ सत्य सिव साखी। भरत भूमि रह राउरि राखी।।
तात कुतरक करहु जनि जाएँ। बैर पेम नहि दुरइ दुराएँ।।
मुनि गन निकट बिहग मृग जाहीं। बाधक बधिक बिलोकि पराहीं।।
हित अनहित पसु पच्छिउ जाना। मानुष तनु गुन ग्यान निधाना।।
तात तुम्हहि मैं जानउँ नीकें। करौं काह असमंजस जीकें।।
राखेउ रायँ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ पेम पन लागी।।
तासु बचन मेटत मन सोचू। तेहि तें अधिक तुम्हार सँकोचू।।
ता पर गुर मोहि आयसु दीन्हा। अवसि जो कहहु चहउँ सोइ कीन्हा।।

दो0-मनु प्रसन्न करि सकुच तजि कहहु करौं सोइ आजु।
सत्यसंध रघुबर बचन सुनि भा सुखी समाजु।।264।।

 

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