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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

अयोध्याकाण्ड

अयोध्याकाण्ड पेज 77

जानहु तात तरनि कुल रीती। सत्यसंध पितु कीरति प्रीती।।
समउ समाजु लाज गुरुजन की। उदासीन हित अनहित मन की।।
तुम्हहि बिदित सबही कर करमू। आपन मोर परम हित धरमू।।
मोहि सब भाँति भरोस तुम्हारा। तदपि कहउँ अवसर अनुसारा।।
तात तात बिनु बात हमारी। केवल गुरुकुल कृपाँ सँभारी।।
नतरु प्रजा परिजन परिवारू। हमहि सहित सबु होत खुआरू।।
जौं बिनु अवसर अथवँ दिनेसू। जग केहि कहहु न होइ कलेसू।।
तस उतपातु तात बिधि कीन्हा। मुनि मिथिलेस राखि सबु लीन्हा।।

दो0-राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम।
गुर प्रभाउ पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम।।305।।


सहित समाज तुम्हार हमारा। घर बन गुर प्रसाद रखवारा।।
मातु पिता गुर स्वामि निदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू।।
सो तुम्ह करहु करावहु मोहू। तात तरनिकुल पालक होहू।।
साधक एक सकल सिधि देनी। कीरति सुगति भूतिमय बेनी।।
सो बिचारि सहि संकटु भारी। करहु प्रजा परिवारु सुखारी।।
बाँटी बिपति सबहिं मोहि भाई। तुम्हहि अवधि भरि बड़ि कठिनाई।।
जानि तुम्हहि मृदु कहउँ कठोरा। कुसमयँ तात न अनुचित मोरा।।
होहिं कुठायँ सुबंधु सुहाए। ओड़िअहिं हाथ असनिहु के घाए।।

दो0-सेवक कर पद नयन से मुख सो साहिबु होइ।
तुलसी प्रीति कि रीति सुनि सुकबि सराहहिं सोइ।।306।।


सभा सकल सुनि रघुबर बानी। प्रेम पयोधि अमिअ जनु सानी।।
सिथिल समाज सनेह समाधी। देखि दसा चुप सारद साधी।।
भरतहि भयउ परम संतोषू। सनमुख स्वामि बिमुख दुख दोषू।।
मुख प्रसन्न मन मिटा बिषादू। भा जनु गूँगेहि गिरा प्रसादू।।
कीन्ह सप्रेम प्रनामु बहोरी। बोले पानि पंकरुह जोरी।।
नाथ भयउ सुखु साथ गए को। लहेउँ लाहु जग जनमु भए को।।
अब कृपाल जस आयसु होई। करौं सीस धरि सादर सोई।।
सो अवलंब देव मोहि देई। अवधि पारु पावौं जेहि सेई।।

दो0-देव देव अभिषेक हित गुर अनुसासनु पाइ।
आनेउँ सब तीरथ सलिलु तेहि कहँ काह रजाइ।।307।।


एकु मनोरथु बड़ मन माहीं। सभयँ सकोच जात कहि नाहीं।।
कहहु तात प्रभु आयसु पाई। बोले बानि सनेह सुहाई।।
चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन। खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन।।
प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी। आयसु होइ त आवौं देखी।।
अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू। तात बिगतभय कानन चरहू।।
मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता। पावन परम सुहावन भ्राता।।
रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं। राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं।।
सुनि प्रभु बचन भरत सुख पावा। मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा।।

दो0-भरत राम संबादु सुनि सकल सुमंगल मूल।
सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल।।308।।

 

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