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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

लंकाकाण्ड

लंकाकाण्ड पेज 10

कपि बल देखि सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे।।
गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहें न तोर उबारा।।
गहसि न राम चरन सठ जाई। सुनत फिरा मन अति सकुचाई।।
भयउ तेजहत श्री सब गई। मध्य दिवस जिमि ससि सोहई।।
सिंघासन बैठेउ सिर नाई। मानहुँ संपति सकल गँवाई।।
जगदातमा प्रानपति रामा। तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा।।
उमा राम की भृकुटि बिलासा। होइ बिस्व पुनि पावइ नासा।।
तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई। तासु दूत पन कहु किमि टरई।।
पुनि कपि कही नीति बिधि नाना। मान न ताहि कालु निअराना।।
रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो। यह कहि चल्यो बालि नृप जायो।।
हतौं न खेत खेलाइ खेलाई। तोहि अबहिं का करौं बड़ाई।।
प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा। सो सुनि रावन भयउ दुखारा।।
जातुधान अंगद पन देखी। भय ब्याकुल सब भए बिसेषी।।

दो0-रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुंज।
पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कंज।।35(क)।।
साँझ जानि दसकंधर भवन गयउ बिलखाइ।
मंदोदरी रावनहि बहुरि कहा समुझाइ।।(ख)।।

कंत समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही।।
रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई।।
पिय तुम्ह ताहि जितब संग्रामा। जाके दूत केर यह कामा।।
कौतुक सिंधु नाघी तव लंका। आयउ कपि केहरी असंका।।
रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा।।
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा।।
अब पति मृषा गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु।।
पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु। अग जग नाथ अतुल बल जानहु।।
बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा।।
जनक सभाँ अगनित भूपाला। रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला।।
भंजि धनुष जानकी बिआही। तब संग्राम जितेहु किन ताही।।
सुरपति सुत जानइ बल थोरा। राखा जिअत आँखि गहि फोरा।।
सूपनखा कै गति तुम्ह देखी। तदपि हृदयँ नहिं लाज बिषेषी।।

दो0-बधि बिराध खर दूषनहि लीँलाँ हत्यो कबंध।
बालि एक सर मारयो तेहि जानहु दसकंध।।36।।


जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला।।
कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू।।
सभा माझ जेहिं तव बल मथा। करि बरूथ महुँ मृगपति जथा।।
अंगद हनुमत अनुचर जाके। रन बाँकुरे बीर अति बाँके।।
तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू।।
अहह कंत कृत राम बिरोधा। काल बिबस मन उपज न बोधा।।
काल दंड गहि काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा।।
निकट काल जेहि आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं।।

दो0-दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु।
कृपासिंधु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु।।37।।

 

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