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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

लंकाकाण्ड

लंकाकाण्ड पेज 11

नारि बचन सुनि बिसिख समाना। सभाँ गयउ उठि होत बिहाना।।
बैठ जाइ सिंघासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली।।
इहाँ राम अंगदहि बोलावा। आइ चरन पंकज सिरु नावा।।
अति आदर सपीप बैठारी। बोले बिहँसि कृपाल खरारी।।
बालितनय कौतुक अति मोही। तात सत्य कहु पूछउँ तोही।।।
रावनु जातुधान कुल टीका। भुज बल अतुल जासु जग लीका।।
तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए। कहहु तात कवनी बिधि पाए।।
सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी। मुकुट न होहिं भूप गुन चारी।।
साम दान अरु दंड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा।।
नीति धर्म के चरन सुहाए। अस जियँ जानि नाथ पहिं आए।।

दो0-धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस।
तेहि परिहरि गुन आए सुनहु कोसलाधीस।।38(((क)।।
परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार।
समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालिकुमार।।38(ख)।।


रिपु के समाचार जब पाए। राम सचिव सब निकट बोलाए।।
लंका बाँके चारि दुआरा। केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा।।
तब कपीस रिच्छेस बिभीषन। सुमिरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन।।
करि बिचार तिन्ह मंत्र दृढ़ावा। चारि अनी कपि कटकु बनावा।।
जथाजोग सेनापति कीन्हे। जूथप सकल बोलि तब लीन्हे।। 
प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए। सुनि कपि सिंघनाद करि धाए।।
हरषित राम चरन सिर नावहिं। गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिं।।
गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा। जय रघुबीर कोसलाधीसा।।
जानत परम दुर्ग अति लंका। प्रभु प्रताप कपि चले असंका।।
घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी। मुखहिं निसान बजावहीं भेरी।।

दो0-जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव।
गर्जहिं सिंघनाद कपि भालु महा बल सींव।।39।।


लंकाँ भयउ कोलाहल भारी। सुना दसानन अति अहँकारी।।
देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई। बिहँसि निसाचर सेन बोलाई।।
आए कीस काल के प्रेरे। छुधावंत सब निसिचर मेरे।।
अस कहि अट्टहास सठ कीन्हा। गृह बैठे अहार बिधि दीन्हा।।
सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू। धरि धरि भालु कीस सब खाहू।।
उमा रावनहि अस अभिमाना। जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना।।
चले निसाचर आयसु मागी। गहि कर भिंडिपाल बर साँगी।।
तोमर मुग्दर परसु प्रचंडा। सुल कृपान परिघ गिरिखंडा।।
जिमि अरुनोपल निकर निहारी। धावहिं सठ खग मांस अहारी।।
चोंच भंग दुख तिन्हहि न सूझा। तिमि धाए मनुजाद अबूझा।।

दो0-नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर।
कोट कँगूरन्हि चढ़ि गए कोटि कोटि रनधीर।।40।।

कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे। मेरु के सृंगनि जनु घन बैसे।।
बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ।।
बाजहिं भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा।।
देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा। अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा।।
धावहिं गनहिं न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा।।
कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं। दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं।।
उत रावन इत राम दोहाई। जयति जयति जय परी लराई।।
निसिचर सिखर समूह ढहावहिं। कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं।।

दो0-धरि कुधर खंड प्रचंड कर्कट भालु गढ़ पर डारहीं।
झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं।।

अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़ि चढ़ि गए।
कपि भालु चढ़ि मंदिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए।।
दो0-एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ।
ऊपर आपु हेठ भट  गिरहिं धरनि पर आइ।।41।।

 

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