सिंहासन-बत्तीसी जब राजा विक्रमादित्य गद्दी पर बैठा तो उसने अपने दीवान से कहा कि तुमसे काम नहीं होगा। अच्छा हो कि मेरे लिए बीस दूसरे आदमी दे दो। दीवान ने ऐसा ही किया। वे लोग काम करने लगे। दीवान सोचने लगा कि वह अब क्या करे, जिससे राजा उससे खुश हो। संयोग की बात कि एक दिन उसे नदी में एक बहुत ही सुन्दर फूल बहुता हुआ मिला, जिसे उसने राजा को भेंट कर दिया। राजा बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने कहा, ‘‘इस फूल का पेड़ लाकर मुझे दो, नहीं तो मैं तुम्हें देश-निकाला दे दूँगा।’’ दीवान बड़ा दु:खी हुआ और एक नाव पर कुछ सामान रखकर जिधर से फूल बहकर आया था, उधर चल दिया। चलते-चलते वह एक पहाड़ के पास पहुँचा, जहाँ से नदी में पानी आ रहा था। वह नाव से उतरकर पहाड़ पर गया। वहाँ देखता क्या है कि हाथी, घोड़े, शेर आदि दहाड़ रहे हैं। वह आगे बढ़ा। उसे ठीक वेसा ही एक और फूल बहता हुआ दिखाई दिया। उसे आशा बँधी। आगे जाने पर उसे एक महल दिखाई दिया। वहाँ पेड़ में एक तपस्वी जंजीर से बँधा उलटा लटक रहा था और उसे घाव से लहू की जो बूँदें नीचे पानी में गिरती थीं, वे ही फूल बन जाती थीं। बीस और योगी वहाँ बैठे थे, जिनका शरीर सूखकर काँटा हो रहा था। दीवान ने बहुत-से फूल इकट्ठे किये और अपने देश लौटकर राजा को सब हाल कह सुनाया। सुनकर राजा ने कहा, ‘‘तुमने जो तपस्वी लटकता देखा, वह मेरा ही शरीर है। पूर्व जन्म में मैंने ऐसे ही तपसया की थी। बीस योगी जो वहाँ बैठे हैं, वे तुम्हारे दिये हुए आदमी हैं।’’ इतना बताकर राजा ने कहा, ‘‘तुम चिंता न करो, जबतक मैं राजा हूँ, तुम दीवान रहोगे। अपना परिचय देने के लिए मैंने यह सब किया था। अपने बड़े भाई को मैंने मारा तो इसमें दोष मेरा नहीं था। जो करम में लिखा होता है, सो होकर ही रहता।’’ पुतली बोली, ‘‘राजा भोज! तुम हो ऐसे, जो सिंहासन पर बैठो?’’ अगले दिन चौबीसवीं पुतली चित्रकला की बारी थी। उसने राजा को रोककर अपनी कहानी कही।
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