सिंहासन-बत्तीसी

सिंहासन-बत्तीसी (संस्कृत:सिंहासन द्वात्रिंशिका, विक्रमचरित) एक लोककथा संग्रह है। प्रजावत्सल, जननायक, प्रयोगवादी एवं दूरदर्शी महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर प्रकाश डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी 32 कथाओं का संग्रह है जिसमें  32  पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं।

सिंहासन बत्तीसी भी बेत्ताल पच्चीसी या वेतालपञ्चविंशति की भांति लोकप्रिय हुआ। संभवत: यह संस्कृत की रचना है जो उत्तरी संस्करण में सिंहासनद्वात्रिंशति तथा "विक्रमचरित के नाम से दक्षिणी संस्करण में उपलब्ध है। पहले के संस्कर्ता एक मुनि कहे जाते हैं जिनका नाम क्षेभेन्द्र था। बंगाल में वररुचि के द्वारा प्रस्तुत संस्करण भी इसी के समरुप माना जाता है। इसका दक्षिणी रुप ज्यादा लोकप्रिय हुआ कि लोक भाषाओं में इसके अनुवाद होते रहे और पौराणिक कथाओं की तरह भारतीय समाज में मौखिक परम्परा के रुप में रच-बस गए। इन कथाओं की रचना "वेतालपञ्चविंशति" या "बेताल पच्चीसी" के बाद हुई पर निश्चित रुप से इनके रचनाकाल के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। इतना लगभग तय है कि इनकी रचना धारा के राजा भोज के समय में नहीं हुई। चूंकि प्रत्येक कथा राजा भोज का उल्लेख करती है, अत: इसका रचना काल  उनके बाद होगा। इसे द्वात्रींशत्पुत्तलिका के नाम से भी जाना जाता है।

उज्जयिनी के राजा भोज के काल में एक खेत में राजा विक्रमादित्य का सिंहासन गड़ा हुआ मिलता है। उसके चारों ओर आठ आठ पुतलियां   हैं। जब राजा भोज उस सिंहासन पर बैठने को होता है तो वे पुतलियां खिलखिलाकर हँस पड़ती हैं। राजा भोज उनसे हँसने का कारण पूछता है तो प्रत्येक पुतली राजा विक्रमादित्य के गुणों की एक-एक कहानी सुनाती है और अंत में कहती है कि तुम्हारे अंदर ये गुण हों तो सिंहासन पर बैठों। हर कहानी दूसरी से भिन्न है। सभी कहानियाँ दिलचस्प हैं ।

 

सिंहासन-बत्तीसी प्रारंभ

कहानी 1

कहानी 2

कहानी 3

कहानी 4

कहानी 5

कहानी 6

कहानी 7

कहानी 8

कहानी 9

कहानी 10

कहानी 11

कहानी 12

कहानी 13

कहानी 14

कहानी 15

कहानी 16

कहानी 17

कहानी 18

कहानी 19

कहानी 20

कहानी 21

कहानी 22

कहानी 23

कहानी 24

कहानी 25

कहानी 26

कहानी 27

कहानी 28

कहानी 29

कहानी 30

कहानी 31

कहानी 32

 

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