Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय राजनीति में गैरकांग्रेसवाद

भारतीय राजनीति में गैरकांग्रेसवाद

 

लोहिया ने 1966 में कहा था कि जिस दिन कांग्रेस को साधना (नियंत्रित करना) सीख लोगे उस दिन भारतीय राजनीति में आगे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकेगा।
मुलायम सिंह यादव ने 1992 में कहा था कि अब राजनीति में गैर-कांग्रेसवाद के लिए कोई जगह नहीं रह गई है। कांग्रेस की चौधराहट खत्म करने के लिए डॉ लोहिया ने यह राजनीतिक औजार 1962 में विकसित किया था। अब सत्ता पर कांग्रेस की इजारेदारी का क्षय हो चुका है। इसका स्थान गैर-भाजपावाद ने ले लिया है।

नेहरू और लोहिया- विनोबा- जयप्रकाश में गांधी की राजनीतिक विरासत 1948 से 1991 तक बंटी रही। कांग्रेस और समाजवादियों की कब्र पर 1991 में भाजपा की सरकार यू.पी. आदि प्रदेशों में आयी। 1993 में बसपा यू.पी. में एक फोर्स बन गई जिसके साथ 1993 में मुलायम सिंह ने और 1995 में भाजपा ने सत्ता पाने के लिए हिस्सेदारी किया। 2008 में मुलायम सिंह ने केन्द्र में कांग्रेस नियंत्रित यू.पी.ए. की सरकार बचायी। 1967 से 2008 तक लोहियावाद ने 40 वर्षों में कांग्रेसवाद को नए रूप में अपने भीतर संस्कारित किया। इसे सांस्कृतिकरण भी कह सकते हैं। sanskritization of congress ideology at a much more broader scale.

अंग्रेज चले गए, कांग्रेसी आए। कांग्रेसी चुकने लगे तो समाजवादी आ गए। समाजवादी चुकने लगे तो दोनों मिल कर सत्ता सुख भोगने लगे। अंग्रेजी राज 1757 से इस देश में बदस्तुर जारी है। 1998 से 2004 के बीच भाजपा नियंत्रित एन.डी.ए की सरकार ने अंग्रेजी राज को बदलने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखलाया। ये लोग कांग्रेसियों से बेहतर अंग्रेज बनने की कोशिश करते रहे। दरअसल 1925 में बने संघ परिवार को पहला धक्का 1947-48 में लगा। फिर दूसरा धक्का 1967 में लगा। जो बचा-खुचा था वह 1977-80 की सरकार में लग गया। 1980 से आडवाणी खुलेआम कहने लगे थे कि हम लोग पटेलवादी कांग्रेस हैं। 1985 से 1992 में चले रामजन्म भूमि आंदोलन का उद्देश्य चाहे जो भी रहा हो भाजपा ने इसका इस्तेमाल मंडल आंदोलन को नियंत्रित करने के लिए उसी तरह किया, जिस तरह विनोबा जी के भूदान आंदोलन का इस्तेमाल कांग्रेस ने नक्सलवादी आंदोलन को नियंत्रित करने के लिए किया था। 1990 में शुरू हुए मंडल आंदोलन उत्तरभारतीय समाज को तो उतना नहीं बदला जितना उत्तरभारतीय राजनीति को बदला। और इसका प्रभाव भाजपा की अन्तरिक संरचना पर भी पड़ा। धीरे-धीरे भाजपा भी पिछड़ों की पार्टी हो गई। गांधीवाद को खोखला बनाने में नेहरू का जितना हाथ था विनोबा और लोहिया का उससे कम हाथ नहीं था। ये लोग गांधी की विचारधारा छोड़कर गांधी की राजनीति और कार्यक्रम लेकर बैठ गए। यर्थाथ एवं मूल्य (fact and value) की संगति कायम नहीं रह पाई। सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में अंबेदकर का बौध्दधर्म भी उसी तरह खोखला साबित हुआ जिस तरह लोहिया का कुजात गांधीवाद और विनोबा का सर्वोदय और जे.पी.की संपूर्ण क्रांति। ले देकर मार्क्सवादी और जनसंघी बचे थे। लेकिन ये अपनी विचारधारा पर टिके नहीं रह सके और 1967 के गैर कांग्रेसवाद के बैनर तले जोड़-तोड़ की राजनीति तले उलझते चले गए। 1998 से 2008 तक भाजपा और सी.पी.एम. की कलई खुल गई। आज इस देश में अंग्रेजी राज का कोई गंभीर बौध्दिक-व्यावहारिक चुनौती नहीं है। देवबंद अकेली संस्था है जो अंग्रेजी राज के लिए चुनौती बनी हुई है।

क्या हिन्दुओं के बीच नवजागरण की नई संभावना नहीं बची है? मेरा मानना है कि बची है। लेकिन इसके लिए नेतृतव के स्तर पर प्रतिबध्द लोगों की एक टोली चाहिए।

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