Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय राजनीति और देश का बंटवारा

भारतीय राजनीति और देश का बंटवारा

 

देश का बंटवारा अंग्रेजों की एक चाल थी, जिन्ना, नेहरू, कृष्णमेनन अंग्रेजों के प्रमुख मोहरे थे। छोटे राज्यों को हिंसा की चपेट में   नियंत्रित कर लेना आसान होता है। यदि बंटवारा नहीं होता तो पाकिस्तान में तालिबान समर्थक बहुमत में नहीं होते। सेना का हस्तक्षेप नहीं होता। अखंड भारत की राजनीति और विकास की प्रक्रिया गुणात्मक रूप से अलग होती। देश का बंटवारा अंग्रेजों की रणनीतिक जीत थी। संभव है कि यदि भारत का बंटवारा नहीं हुआ होता तो भारत की हालत लेबनान की तरह भी हो सकती थी। सीमा पर युध्द नहीं होता, लेकिन गृह - युध्द की स्थिति बनी रहती। भारत में हमेशा दंगा होते रहता। खासकर नेहरू के प्रधानमंत्री रहते हुए। परन्तु इसके बावजूद मैं अब भी मानता हूँ कि यदि देश का बंटवारा नहीं हुआ होता तो कुल मिलाकर भारत, पाकिस्तान और बंगला देश तीनों के लिए अच्छा होता।
परन्तु अब फिर से अखंड भारत बनना संभव नहीं है। उसी तरह अब अंग्रेजी इस देश की एक भाषा बन चुकी है और केन्द्रीय स्तर पर इसका महत्व 1947 या 1964 की तुलना में बहुत बढ़ गया है। अब हिन्दी राष्ट्रीयस्तर की राजकाज की भाषा निकट भविष्य में नहीं बन सकती। जब तक भारत सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं बन जाता और हिन्दी संयुक्त राष्ट्र - संघ की भाषा के रूप में स्वीकृत नहीं हो जाती, इस देश में हिन्दी उत्तर भारत की भाषा बनी रहेगी। अमेरिका में विचारहीनता का दौर चल रहा है। अमेरिकी वर्चस्व के खिलाफ इस्लामी आतंकवाद और माओवाद अभी चलता रहेगा। इनसे जीतना अकेले अमेरिका के बूते की बात नहीं है। संयुक्त राष्ट्र्र - संघ में जब तक इस पर आम सहमति नहीं होती तब तक अमेरिका या नाटो के अभियान को स्थानीय लोगों का लोकप्रिय सहयोग नहीं मिलेगा। अफगानिस्तान में अमेरिका की उसी तरह रणनीतिक हार हुई है जिस तरह वियतनाम और क्युबा में हुई थी। अफगानिस्तान की भू-सांस्कृतिक स्थिति ऐसी है कि उसे अंग्रेज और रूसी लोग भी पूर्णत: शांत नहीं बना सके। ऐंग्लो-अफगान युध्द के समय एयर फोर्स की तकनीक का विकास नहीं हुआ था। सैनिक बेड़ा के रूप में। एयर फोर्स प्रथम विश्वयुध्द से पहले नहीं आया था। अत: अंग्रेजों को अफगानिस्तान में दिक्कत हुई। रूसियों के खिलाफ अमेरिका मुजाहिद्यीनों को मदद करता रहा। अत: रूस की नीतियां अफगानिस्तान में चल नहीं पाई। अमेरिका पर्याप्त मात्रा में फौज नहीं भेज रहा है। 20-25 हजार सैनिक काफी कम है। 2-3 लाख सैनिक भेजे जायें। सारी गुफाओं की छानबीन की जाये। पैसा तथा सैनिक सामान की सप्लाई पर रोक लगाई जाए तो आतंकवाद का सफाया किया जा सकता है। लेकिन इसके लिए अकेरिकी प्रशासन में इच्छा-शक्ति एवं दूरदृष्टि का अभाव है। ईराक में भी अमेरिका ने कुल मिलाकर अल्प अवधि के फायदे के लिए दीर्घकालीन नुकसान उठाया है। विश्व जनमत अमेरिका के ईराक अभियान के खिलाफ रहा है। खासकर सद्दाम हुसैन के पराभव के बाद की घटनायें अमेरिका के खिलाफ गयी हैं।
जो दृष्टि हीनता कांग्रेस ने 1947 - 50 में दिख्लाया था वही दृष्टि हीनता भाजपा 2007 - 2009 में दिखला रही है। भारतीय राजनीति में दूरदृष्टि और स्पष्ट दिशा वाले राजनीतिक नेतृत्व का अभाव है। कांग्रेस एक सत्ता लोलुप अवसरवादी पार्टी बन चुकी है। महात्मा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस में लगातार अवसरवादी नीतियां और राजनीतिक अभियान चलता रहा है। सत्ता में आने के लिए अन्य दल भी कांग्रेसी रणनीति को अपना चुके हैं। केवल माओवादी और जेहादी इस्लाम के पास विचारधारा बचा है। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। सभ्यतामूलक विमर्श के लिए स्थितियां लगातार प्रतिकूल होती जा रही हैं। चीन में भी देंग की विरासत संकट में है। हू जिंताओ के लिए उत्ताराधिकारी चूनना आसान नहीं रह गया है।
जापान में 50 सालों से चला आया एक दलीय शासन का अंत हो चुका है। रूस में अभी पुतीन का कोई विकल्प नहीं है। यूरोपीयन और भारत में सभ्यतामूलक विमर्श चलाने का माद्दा तो है परन्तु दोनों जगह नेतृत्व का संकट है।

 

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