Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

नवरात्र

नवरात्र

 

नवरात्र में सृजन विद्या का लोकप्रिय, लोक कल्याणकारी विद्या अभिव्यक्त होती है। जिस तरह नौ महीनों में एक बच्चा पैदा होता है उसी के समरूप नौ दिनों में शक्ति का सृजन होता दिखाया जाता है। इनमें नौ की संख्या है जो तंत्र की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

जिस तरह छठ का संबंध अमृत तत्व से है उसी तरह दशहरा - दूर्गापूजा - नवरात्र का संबंध संजीवनी विद्या से है। दोनों का संबंध दक्षिणायण सूर्य से है। इसके विपरीत उत्तारायण सूूर्य में मकर संक्रांति और विषुवत संक्रांति और रामनवमी का महत्व है। उत्तारायण सूर्य कृषि की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

इस्लाम चांद केन्द्रित है। यह सोम की साधना की एक विधि है। उनका ईद उल फित्र करीब - करीब दूर्गापूजा के समय (उसी चांद माह) में मनायी जाती है।                  

जबकि क्रिसमस और मकर संक्रांति एक ही सौर मास में मनाया जाता है। बुध्द जयंति भी उत्तारायण सूर्य में ही मनाया जाता है। यहुदियों और पारसियों का धार्मिक जीवन बुध्द से पहले का मामला है। परन्तु इतना स्पष्ट है कि पारसी अग्नि - सूर्य पूजक हैं और यहुदि जल (वाटर)- सोम पूजक हैं।

संसार के सभी लोकप्रिय धर्मों का कर्मकाण्ड (रिचुअल) एवं उनेक जातीय इतिहास में देश (स्पेस) और काल (टाइम) का विभाजन सूर्य या चन्द्र की गति या अग्नि - सोम की स्थिति से नियंत्रित होता है। सभी धर्मों के भीतर उनका अपना जातीय कैलेन्डर या पंचांग होता है।

सभी धर्मों में 3 अंग होता है (1) कर्मकाण्ड (2) धार्मिक विश्वास मिथक एवं आख्यान तथा (3) सामाजिक व्यवस्था। दो या अधिक धर्मों के बीच सबसे ज्यादा अंतर सामाजिक व्यवस्था के स्तर पर होता है। कर्मकाण्ड का संबंध सूर्य और चन्द्र से होता है। धार्मिक विश्वास, मिथक  एवं आख्यान का संबंध जातीय चेतना से होता है। सामाजिक व्यवस्था जातीय चेतना और देशकाल के आधार पर विकसित होता है। सामाजिक व्यवस्था की प्रथम अभिव्यक्ति भाषा में  एवं नातेदारी व्यवस्था में होती है।

मध्यकाल तक दूसरे कौम, सम्प्रदाय या जनजाति के विजेता का पहला प्रहार पराजित समुदाय की स्त्री पर और दूसरा प्रहार उसकी भाषा पर होती थी। पराजित कौम की स्त्री और भाषा का हरण विजेता का लोकप्रिय पुरस्कार था। पराजित कौम इस बात पर सबसे ज्यादा अपमानित होता था कि वह अपने कौम की स्त्रियों और भाषा की रक्षा नहीं कर सकता था। आधुनिक काल के विजेता सैनिक आज भी पराजित कौम की स्त्रियों का बलात्कार करते हैं। परन्तु वे हरम नहीं बसाते। वेश्याओं की मलिन बस्ती बसाते हैं। परन्तु यह सब खुलेआम नहीं किया जाता। दहशत का माहौल और भगदड़ के वातावरण में देशी दलालों के सहयोग से किया जाता है।

मध्यकालीन विजेता का जोर स्त्रियों पर ज्यादा था। भाषा धर्मान्तरण एवं साम्राज्य निर्माण के क्रम में अपने आप छिनने लगती थी। मध्यकालीन आक्रमण का उद्देश्य लूट रहा है। वे धन, सम्पत्तिा एवं स्त्रियां लूट कर ले जाते थे।

उत्तार मध्यकाल में विजेता विजित देश में बसने लगे। विजित जाति का धर्मान्तरण एवं भाषा हरण उनका प्रमुख उद्देश्य होने लगा।

आधुनिक विजेतायों में भी तीनों प्रवृतियां रही हैं - लूट , स्त्रीहरण, धर्मान्तरण। परन्तु धीरे - धीरे भाषा हरण इनका प्रमुख रूप होता गया। भाषा आत्मा की कवच होती है। भाषा हरण के बाद आत्मा के बचने का कोई अवसर नहीं रह जाता। कुंठित अभिव्यक्ति का परिणाम अंतहीन दासता होती है।

उत्तारआधुनिक बाजारवादी व्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि उपभोक्ता की भाषा में मिलावट आ जाए ताकि वह जीवन के लिए जरूरी और गैर जरूरी का भेद ही नहीं कर सके। बाजार हर नए उत्पाद के जन्म के समय ही उसकी मृत्यु की तिथि भी निर्धारित करता है ताकि नए मॉडल के लिए बाजार बना रहे। बाजार उपभोक्ता की आत्मा को गुलाम बनाना चाहता है और भाषा की खिचड़ी इसके लिए आवश्यक कदम है। सिनेमा और टेलीविजन भी बाजार तंत्र का ही एक हिस्सा है।           

 

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