`कबीर' नौबत आपणी, दिन दस लेहु बजाइ |
ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ||1 ||
भावार्थ - कबीर कहते हैं-- अपनी इस नौबत को दस दिन और बजालो तुम |
फिर यह नगर, यह पट्टन और ये गलियाँ देखने को नहीं मिलेंगी ?
कहाँ मिलेगा ऐसा सुयोग, ऐसा संयोग, जीवन सफल करने का, बिगड़ी बात को बना लेने का
जिनके नौबति बाजती, मैंगल बंधते बारि |
एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ||2||
भावार्थ - पहर-पहर पर नौबत बजा करती थी जिनके द्वार पर,
और मस्त हाथी जहाँ बँधे हुए झूमते थे | वे अपने जीवन की बाजी हार गये |
इसलिए कि उन्होंने हरि का नाम-स्मरण नहीं किया|
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217