(1483-1563 ई. अनुमानित)
सूरदास
(1483-1563 ई. अनुमानित)
सूरदास का जन्म दिल्ली के पास सीही ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ। ये जन्मांध थे अथवा बाद में नेत्रहीन हुए, इस विषय में मतभेद हैं। ये कृष्ण-भक्त थे तथा अतिशय दीन थे। वल्लभाचार्यजी से भेंट होने पर उन्होंने इनका 'घिघियाना (दैन्य प्रकट करना) छुडवाया तथा कृष्ण के आनंदमय स्वरूप की ओर ध्यान आकर्षित किया। इसके उपरांत सूरदास ने भागवत के द्वादश स्कंधों पर सवा लाख पदों की रचना की, जिनमें से अब 5000 पद उपलब्ध हैं जो 'सूर-सागर में संकलित हैं। यही इनका एकमात्र ग्रंथ है।
सूरदास अष्टछाप के कवियों में अग्रणी हैं तथा ब्रजभाषा साहित्य के सूर्य हैं। इनकी कविता भाषा, भाव, अलंकार आदि काव्य के समस्त गुणों में खरी उतरती है। सूर के पदों में कृष्ण की बाल लीला तथा प्रेम के संयोग-वियोग दोनों पक्षों का अत्यंत सजीव, स्वाभाविक और ऑंखों देखा वर्णन मिलता है। इन्होंने गूढ अर्थों के कुछ कूट पद भी लिखे हैं। साथ ही भक्ति, दैन्य और चेतावनी के पद भी हैं। इनके उपास्य 'श्रीनाथजी थे तथा अंत में ये उन्हीं के मंदिर की ध्वजा का ध्यान करते-करते ब्रह्मलीन हो गए। इनके विषय में प्रसिध्द है :
सूर-सूर तुलसी शशी, उडगन केशवदास।
अबके कवि खद्योत सम, जहँ तहँ करहिं प्रकास॥
पद
चरन कमल बंदौ हरिराई।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधे को सब कुछ दरसाई॥
बहिरो सुनै, मूक पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराई॥
'सूरदास स्वामी करुनामय, बारबार बंदौं तेहि पाई॥
का जोगिया की लागी नजर मेरो बारो कन्हैया रोवै री॥
मेरी गली जिन आहुरे जोगिया, अलख-अल कर बोलै री॥
घर-घर हाथ दिखावे यशोदा, बार बार मुख जोवै री॥
राई लोन उतारत छिन-छिन, 'सूर को प्रभु सुख सोवै री॥
आज तो श्री गोकुल में, बजत बधावरा री।
जसुमति नंद लाल पायौ, कंस राज काल पायौ,
गोपिन्ह ने ग्वाल पायौ, बन कौ सिंगारा री॥
गउअन गोपाल पायौ, जाचकन भाग पायौ
सखियन सुहाग पायौ, प्रिया वर साँवरा री॥
देवन्ह ने प्रान पायौ, गुनियन ने गान पायौ,
भगतन भगवान पायौ, 'सूर सुख दावरा री॥
जसोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-सोइ कछु गावै॥
मेरे लाल को आउ निंदरिया, काहे न आनि सुवावै।
तू काहे नहिं बेगहिं आवै, तोको कान्ह बुलावै॥
कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै॥
इहिं अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरे गावै।
जो सुख 'सूर अमर मुनि दुरलभ, सो नँद भामिनि पावै॥
मैया मेरी, चंद्र खिलौना लैहौं॥
धौरी को पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुथैहौं।
मोतिन माल न धरिहौं उर पर, झंगुली कंठ न लैहौं॥
जैहों लोट अबहिं धरनी पर, तेरी गो न ऐहौं।
लाल कहैहौं नंद बाबा को, तेरो सुत न कहैहौं॥
कान लाय कछु कहत जसोदा, दाउहिं नाहिं सुनैहौं।
चंदा ते अति सुंदर तोहिं, नवल दुलहिया ब्यैहौं॥
तेरी सौं मेरी सुन मैया, अबहीं ब्याहन जैहौं।
'सूरदास सब सखा बराती, नूतन मंगल गैहौं॥
मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो,
भोर भयो गैयन के पाछे, मधुवन मोहिं पठायो।
चार पहर बंसीबट भटक्यो, साँझ परे घर आयो॥
मैं बालक बहिंयन को छोटो, छींको किहि बिधि पयो।
ग्वाल बाल सब बैर परे हैं, बरबस मुख लपटायो॥
तू जननी मन की अति भोरी, इनके कहे पतिआयो।
जिय तेरे कछु भेद उपजि है, जानि परायो जायो॥
यह लैं अपनी लकुटि कमरिया, बहुतहिं नाच नचायो।
'सूरदास तब बिहँसि जसोदा, लै उर कंठ लगायो॥
बिनु गुपाल बैरिन भई कुंजैं।
तब ये लता लगति अति सीतल, अब भईं विषम ज्वाल की पुंजैं॥
वृथा बहत जमुना, खग बोलत, वृथा कमल फूलैं अलि गुंजैं।
पवन, पानि, घनसार, संजीवनि, दधिसुत किरन भानु भई भुंजैं॥
ये ऊधो कहियो माधव सों, बिरह करत कर मारत लुंजैं।
'सूरदास प्रभु को मग जोवत, ऍंखियाँ भईं बरन ज्यों गुंजैं॥
निसिदिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहत पावस ॠतु हम पर, जबतें स्याम सिधारे॥
अंजन थिर न रहत ऍंखियन में, कर कपोल भये कारे।
कंचुकि -पट सूखत नहिं कबँ, उर बिच बहत पनारे॥
ऑंसू सलिल भये पग थाके, बहे जात सित तारे।
'सूरदास अब डूबत है ब्रज, काहे न लेत उबारे॥
सखी, इन नैनन तें घन हारे।
बिन ही रितु बरसत निसि बासर, सदा मलिन दोउ तारे॥
ऊरध स्वाँस समीर तेज अति, सुख अनेक द्रुम डारे।
दिसिन्ह सदन करि बसे बचन-खग, दु:ख पावस के मारे॥
सुमिरि-सुमिरि गरजत जल छाँडत, अंसु सलिल के धारे।
बूडत ब्रजहिं 'सूर को राखै, बिनु गिरिवरधर प्यारे॥
ऊधो मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।
वृंदावन गोकुल वन उपवन, सघन कुंज की छाहीं॥
प्रात समय माता जसुमति अरु, नंद देखि सुख पावत।
माखन रोटी दह्यो सजायौ, अति हित साथ खवावत।
गोपी ग्वाल बाल संग खेलत, सब दिन हँसत सिरात।
'सूरदास धनि-धनि ब्रजवासी, जिनसौं हितु जदु-तात॥
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उडि जहाज को पंछी, फिरि जहाज पर आवै॥
कमल-नैन को छाँडि महातम, और देव को ध्यावै।
परम गंग को छाँडि पियासो, दुरमति कूप खनावै॥
जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यो, क्यों करील-फल खावै।
'सूरदास प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै॥
प्रभु मेरे अवगुन चित न धरो।
समदरसी प्रभु नाम तिहारो, चाहे तो पार करो॥
इक नदिया इक नार कहावत, मैलो नीर भरो।
जब मिलि कै दोऊ एक बरन भये, सुरसरि नाम परो॥
इक लोहा पूजा में राखत, इक घर बधिक परो।
पारस गुन अवगुन नहिं चितवै, कंचन करत खरो॥
यह माया भ्रमजाल कहावत, 'सूरदास सगरो।
अबकी बेर मोहिं पार उतारो, नहिं पन जात टरो॥
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Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)
See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217