मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-10

पेज-102

मगर नहीं, यह तो धनिया है। पुकार रही है।

धनिया ने पुकारा - सो गए कि जागते हो?

होरी झटपट उठा और मँड़ैया के बाहर निकल आया। आज मालूम होता है, देवी प्रसन्न हो गई, उसे वरदान देने आई हैं, इसके साथ ही इस बादल-बूँदी और जाड़े-पाले में इतनी रात गए उसका आना शंकाप्रद भी था। जरूर कोई-न-कोई बात हुई है।

बोला - ठंड के मारे नींद भी आती है - तू इस जाड़े-पाले में कैसे आई? सब कुसल तो है?

'हाँ, सब कुसल है।'

'गोबर को भेज कर मुझे क्यों नहीं बुलवा लिया?'

धनिया ने कोई उत्तर न दिया। मँड़ैया में आ कर पुआल पर बैठती हुई बोली - गोबर ने तो मुँह में कालिख लगा दी, उसकी करनी क्या पूछते हो! जिस बात को डरती थी, वह हो कर रही।

'क्या हुआ? किसी से मार-पीट कर बैठा?'

'अब मैं क्या जानूँ, क्या कर बैठा, चल कर पूछो उसी राँड़ से?'

'किस राँड़ से? क्या कहती है तू - बौरा तो नहीं गई?'

'हाँ, बौरा क्यों न जाऊँगी। बात ही ऐसी हुई है कि छाती दुगनी हो जाय!'

होरी के मन में प्रकाश की एक लंबी रेखा ने प्रवेश किया।

'साफ-साफ क्यों नहीं कहती। किस राँड़ को कह रही है?'

'उसी झुनिया को, और किसको!'

'तो झुनिया क्या यहाँ आई है?'

'और कहाँ जाती, पूछता कौन?'

'गोबर क्या घर में नहीं है?'

'गोबर का कहीं पता नहीं। जाने कहाँ भाग गया। इसे पाँच महीने का पेट है।'

होरी सब कुछ समझ गया। गोबर को बार-बार अहिराने जाते देख कर वह खटका था जरूर, मगर उसे ऐसा खिलाड़ी न समझता था। युवकों में कुछ रसिकता होती ही है, इसमें कोई नई बात नहीं। मगर जिस रूई के गोले को उसने नीले आकाश में हवा के झोंके से उड़ते देख कर केवल मुस्करा दिया था, वह सारे आकाश में छा कर उसके मार्ग को इतना अंधकारमय बना देगा, यह तो कोई देवता भी न जान सकता था। गोबर ऐसा लंपट! वह सरल गँवार, जिसे वह अभी बच्चा समझता था! लेकिन उसे भोज की चिंता न थी, पंचायत का भय न था, झुनिया घर में कैसे रहेगी, इसकी चिंता भी उसे न थी। उसे चिंता थी गोबर की। लड़का लज्जाशील है, अनाड़ी है, आत्माभिमानी है, कहीं कोई नादानी न कर बैठे।

 

 

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